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हौं बनिजारौ राम कौ

haun banijarau ram kau

रैदास

रैदास

हौं बनिजारौ राम कौ

रैदास

और अधिकरैदास

    हौं बनिजारौ राम कौ, हरि जू कौ टांडौ लादौ जाव रे।

    राम नाम धन पायौ, तातैं सहज करौं व्यापार रे॥

    औघट घाट घणौं घणा रे, निरगुन बैल हमार।

    राम नाम हम लादयौ, तावैं विष लाथौं संसार रे॥

    अनतहि धन धर्यौ रे, अनतहि ढूँढण जाइ।

    अनंत कौ धरयौ पाइयै, तावै चाल्यौ मूल गंमाइ रे॥

    रैण गंमाई सौइ करि, द्यौस गंमायौ खाइ रे।

    हीरा यहु मन पाइ करि, कौड़ी बदलै जाइ रे॥

    साध संगति पूँजि भई रे, वस्तु लई निरमोल।

    सहजै बल दिया लादि करि, चुंह दिसि टांडो मेलि रे॥

    जैसा रंग कसुंभ का, तैस संसार रे।

    रमइया रंग मजीठ का, भणै रैदास विचार रे॥

    मैं राम−नाम रूपी धन का व्यापारी हूँ। मैं उसी धन का क्रय−विक्रय करने के लिए ही निकला हूँ। मुझे इस रामनाम रूपी धन की प्राप्ति हो गई है, इसीलिए सहजावस्था का व्यापार करता हूँ। मुझे इस धन का सौदा लेकर जिन रास्तों से गुज़रना है, वे बहुत दुर्गम हैं और निर्गुणोपासक मेरा जीवन रूपी बैल अकेला है। मैं तो सिर्फ़ नाम धन को लाद कर चला हूँ जबकि सारा संसार विषय−वासना के विष को लादकर व्यापार कर रहा है। मनुष्य के पास ही नाम रूपी धन है फिर भी वह उसे अन्यत्र ढूँढ़ने के लिए जाता है। मन के विषय−विकारों में ग्रस्त होने के कारण वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर पाता, इसलिए वह अपने मूल धन को गँवाकर ख़ाली हाथ ही संसार से चला जाता है। अज्ञानी मनुष्य सांसारिक विषय−रसों में लिप्त रहकर अपने रात−दिन व्यर्थ ही नष्ट कर लेता है। उसको हीरे के समान दुर्लभ शरीर मिला था लेकिन वह उसे कौड़ियों के भाव लुटाकर संसार से चला जाता है। मैंने साधु−संगति रूपी दुर्लभ पूँजी पायी है। इस सत्संग से प्राप्त सहज बल को अपने हृदय में धारण कर मैं इस धन को चारों दिशाओं में खपाने के लिए चला हूँ। मैंने यह जान लिया है कि इस संसार का आकर्षण कुसुंभ−पुष्प के रंग के समान फीका है जबकि राम-भक्ति का रंग मजीठ के रंग के समान चिर-स्थाई है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रैदास ग्रंथावली (पृष्ठ 266)
    • रचनाकार : डॉ. जगदीश शरण
    • प्रकाशन : साहित्य संस्थान
    • संस्करण : 2011

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