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हरि हौं सब पतितनि को नायक

hari haun sab patitani ko nayak

सूरदास

सूरदास

हरि हौं सब पतितनि को नायक

सूरदास

हरि, हौं सब पतितनि को नायक।

को करि सकै बराबरि मेरी, और नहीं कोउ लायक॥

जो प्रभु अजामील कौं दीन्हौ, सो पाटौ लिखित पाऊँ।

तौ बिस्वास होइ मन मेरैं, औरौ पतित बुलाऊँ।

बचन बाँह लै चलौं गाँठि दै, पाऊँ सुख अति भारी।

यह मारग चौगुनौ चलाऊँ, तौ पूरौ ब्यौपारी॥

यह सुनि जहाँ-तहाँ तैं सिमिटैं, आइ होइ इक ठौर।

अब कैं तौ आपुन लै आयौ, बेर बहुर की और॥

होड़ा-होड़ी मनहि भावते किए पाप भारि पेट।

ते सब पतित पाय तर डारौं, यहै हमारी भेंट॥

बहुत भरोसौ जानि तुम्हारौ, अध कीन्हें भरि भाँड़ौ।

लीजै बेगि निबेरि तुरतहीं सूर पतित कौ टाँड़ौं॥

हे हरि! मैं सब पतितों का नायक हूँ। मेरी बराबरी कौन कर सकता है, दूसरा कोई इस योग्य नहीं है। हे स्वामी! अजामिल को आपने जो पट्टा (आश्वासन) दिया था, वही पट्टा यदि लिखा हुआ मैं पा जाऊँ, कि एक बार किसी प्रकार आपका नाम लेने से उद्धार हो जाएगा तो मेरे मन में विश्वास हो जाए और दूसरे पतित भी बुला लूँ। आपके वचनों के सहारे को गाँठ बाँधकर ले चलूँ और महान सुख प्राप्त करूँ। यह शरणगति का मार्ग चौगुना चलाऊँ, तब मुझे पूरा व्यापारी समझिए। आपका यह आश्वासन सुनकर जहाँ-तहाँ सब ओर से पापी लोग एक स्थान पर आकर एकत्र हो जाएँ। इस बार तो मैं अपने आपको ही ले आया हूँ दूसरी बार और भी ले आऊँगा। परस्पर प्रतिस्पर्धा करके जिन्होंने भरपेट मनमाने पाप किए हैं, वे सब पापी लाकर आपकी शरण में डाल दूँ, यही मेरा उपहार होगा। आपका बहुत भरोसा समझकर ही जीवनभर पाप किए हैं। सूरदास कहते हैं—हे स्वामी! पतितों के इस समूह का तुरंत उद्धार कीजिए।

स्रोत :
  • पुस्तक : सूर−विनय−पत्रिका (पृष्ठ 165)
  • रचनाकार : सुदर्शनसिंह
  • प्रकाशन : गीता प्रेस
  • संस्करण : 2000

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