अरे बढ़ सहज गइ पर रज्जह
are baDh sahj gai par rajjah
अरे बढ़ सहज गइ पर रज्जह।
मा भव−गंध−बंध पहिबज्जह॥
एहु निअ मण सबल चातर स चल।
मेलहिं सहाव ट्ठाअ वसइ दोस−णिम्मल॥
जब्बें मण अत्थमणु जाइ, तणु तुट्टइ बंधण।
तब्बें सम रसहि मज्झे, णउ सुद्द ण बाम्हण॥
अरे मूर्ख! सहज गति पर ध्यान केंद्रित कर। सहज अवस्था के प्राप्त करने पर न दुःख है, न गंध है और न किसी प्रकार के बंधन का भय है। यह मन चंचल घोड़े के समान है। वह अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता, इसलिए स्थिर होने पर ही वह दोष−मुक्त होकर निर्मल बनता है। जब चित्त स्थिर हो जाता है, जब शरीर का अभिमान टूट जाता है, तब समरस के बीच पहुँचकर सहजावस्था की प्राप्ति होती है, वहाँ न कोई शूद्र होता है न कोई ब्राह्मण।
- पुस्तक : दोहाकोश; भाषा बैजनाथ (पृष्ठ 35)
- रचनाकार : डॉ० रमाइंद्र कुमार
- प्रकाशन : माँ पार्वती बैजनाथ प्रकाशन
- संस्करण : 1993
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