साधो भवसागरमें काल, होरी खेलई
saadho bhavsaagarme.n kaal, horii khela.ii
साधो भवसागरमें काल, होरी खेलई॥
भांति-भांति के रंग लिये कर करत जीवन की घात।
बूढाबाला कछू न देखै देखै दिन नहिं रात॥
निश्चय मौत लिये संग रानी नानारंग सम्हार।
बडे अभिमानी नामी सोभी लीने मार॥
सूर चंदवा भयते कांपे स्वर्ग माहिं सब देव।
तनु धारी सबही थर्राने ज्ञानी जानत भेव॥
आपन को देही नहिं माने जाने आतम सांच।
चरण दास कहै सहजो बाई ताहिन आवै आंच॥
सहजो बाई कहती है कि इस संसार सागर में काल लगातार होली खेल रहा है, यानी मृत्यु सर्वत्र व्याप्त है। वह अपने हाथों में रंग-अबीर (मृत्यु के बहाने) लेकर पल-प्रतिपल जीवन पर घात कर रहा है। अर्थात अनेक बहानों से जीव की मृत्यु रच रहा है। वह ना बूढ़ा देख रहा, ना बच्चा। मौत निश्चित है और उसके बहाने और कारण अनंत। मृत्यु ने महान होने का दावा करने वाले नामदारों और अभिमानियों से भी जीवन छीना है। मृत्यु से सूर्य, चंद्रमा और स्वर्ग के देवता भी कांपते हैं। इस संसार में जिसने भी जन्म लिया है, मृत्यु से सब थर्राते हैं। सिर्फ़ ज्ञानी जन इसका रहस्य जानते हैं। चरणदास अपनी शिष्या सहजो से कहते हैं कि जो अपने को देह नहीं मानता, बल्कि आत्म को ही सच मानकर चलता है; उस पर आँच भी नहीं आती अर्थात मृत्यु उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
- पुस्तक : सहजप्रकाश (पृष्ठ 99)
- रचनाकार : सहजोबाई
- प्रकाशन : श्रीवेंकटेश्वर स्टीम् प्रेस, बंबई
- संस्करण : 1922
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