दास नहीं छाड़िये हो, तेरो जन जे अपराधी होई।
अमृत अनूप सरोदिका, संतति भीतरि वास।
एक बूँद प्रापति नहीं, जन क्युँ पावे विसवास॥
हूँ तुझ कारनि बीनऊँ, निसि दिन खरौ उदास।
उदिक तीर पसु बाँधियो, बिन खसमहिं मरे पियास॥
और नहीं अवलंबना, जन सेन कहे समझाय।
तुम ठाकुर मैं सेवगा, कृपा करो रामराय॥
हे देव! इस दास का परित्याग मत करना। भले ही यह अपराधी हो। घट भीतर अमृत की अनुपम सरोदिका झर रही है। भीतर ही उसकी निरंतर सुगंध फैल रही है। उस अमृत झरण की एक बूँद भी यदि प्राप्त नहीं हो, तब मन में धैर्य और विश्वास कैसे स्थिर रहे? हे प्रभु! आपके समक्ष उदास मन आपकी विनती करने के लिए आर्त भाव से खड़ा हूँ। जलाशय के किनारे कोई बँधा पशु स्वयं अपनी प्यास नहीं बुझा सकता, वह बिना स्वामी के प्यासा ही रहता है। मेरे गले में भी माया, मोह की डोर बँधी है। हे प्रभु! मुझे केवल आपका ही सहारा है, और कोई सहारा नहीं है। हे रामराय! आप ठाकुर और मैं सेवक हूँ। कृपा कर मुझे भवबंध से मुक्त करो।
- पुस्तक : संत सैन भगत (पृष्ठ 299)
- संपादक : अशोेक मिश्र
- रचनाकार : संत सैन भगत
- प्रकाशन : आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश
- संस्करण : 2013
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