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सिद्धार्थ के मन पर बाह्म जगत् का प्रभाव

siddharth ke man par bahm jagat ka prabhaw

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

सिद्धार्थ के मन पर बाह्म जगत् का प्रभाव

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

और अधिकआचार्य रामचंद्र शुक्ल

    बोलि उठ्यो सिद्धार्थ 'अहो! बनकुसुम मनोहर।

    जोहत कोमल खिले मुखन जो उदित प्रभाकर॥

    ज्योति पाय हरपाय श्वास-सौरभ संचारत।

    रजत, स्वर्ण, अरुणाभ नवल परिधान सँवारत॥

    तुम में ते कोउ जीवन नहिं माटी करि डारत।

    नहिं अपनो हठि रूप मनोहर कोउ बिगारत॥

    एहो ताल। विशाल भाल जो रह्यो उठाई।

    चाहत मेदन वियत पियत सो पवन अघाई॥

    शीतल नीरधि नील अक जो आवति परसति।

    मंजु मलयगिरि गंधभार भरि मंद-मंद गति॥

    जानत ऐसो भेद कौन जासो, हे प्रिय द्रुम।

    अंकुर ते फलकात ताइँ हौ रहत तुष्ट तुम?

    पंख सरीखे पातन सों मर्मर ध्वनि काढत।

    अट्टाहास सो हँसत-हँसत तुम जग में बाढत॥

    तरु डारन पै बिहरन-हारे हे बिहगगन।

    शुक, सारिका, कपोत, शिखि, पिक, चातक, खंजन॥

    तिरस्कार निज जीवन को नहिं तुमहु करत हौ।

    अधिक सुखन की आस मारि तन मन मरत हौ।'

    स्रोत :
    • पुस्तक : कविता-कौमुदी, दूसरा भाग : हिंदी (पृष्ठ 436)
    • संपादक : रामनरेश त्रिपाठी
    • रचनाकार : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
    • प्रकाशन : हिंदी-मंदिर, प्रयाग
    • संस्करण : 1996

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