पत्रकारीय लेखन के विभिन्न रूप और लेखन प्रक्रिया
patrkariy lekhan ke vibhinn roop aur lekhan prakriya
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
समाचारपत्रों में बड़ी शक्ति है, ठीक वैसी ही जैसी कि पानी के ज़बरदस्त प्रवाह में होती है। इसे खुला छोड़ देगें तो गाँव के गाँव बहा देगा। उसी तरह निरंकुश क़लम समाज के विनाश का कारण बन सकती है। लेकिन अंकुश भीतर का होना चाहिए, बाहर का अंकुश तो और भी ज़हरीला होगा।
—महात्मा गांधी
एक नज़र में...
एक अच्छा पत्रकार या लेखक बनने के लिए विभिन्न जनसंचार माध्यमों में लिखने की अलग-अलग शैलियों से परिचित होना ज़रूरी है। अख़बारों या पत्रिकाओं में समाचार, फ़ीचर, विशेष रिपोर्ट, लेख और टिप्पणियाँ प्रकाशित होती हैं। इन सबको लिखने की अलग-अलग पद्धति है जिनका ध्यान रखा जाना चाहिए। समाचार लेखन में उलटा पिरामिड-शैली का उपयोग किया जाता है। समाचार लिखते हुए छह ककारों का ध्यान रखना ज़रूरी है।
फ़ीचर लेखन में उलटा पिरामिड के बजाए फ़ीचर की शुरुआत कहीं से भी हो सकती है। जबकि विशेष रिपोर्ट के लेखन में तथ्यों की खोज और विश्लेषण पर ज़ोर दिया जाता है। समाचारपत्रों में विचारपरक लेखन के तहत लेख, टिप्पणियों और संपादकीय लेखन में भी विचारों और विश्लेषण पर ज़ोर होता है।
आमतौर पर हर नए लेखक की अख़बारों में लिखने और छपने की इच्छा होती है। यह बहुत स्वाभाविक है लेकिन अख़बारों के लिए लेखन आसान भी है और मुश्किल भी। आसान इसलिए कि अगर आप पत्रकारीय लेखन के विभिन्न रूपों और उनकी लेखन प्रक्रिया की बारीकियों से परिचित हैं तो अख़बारों के लिए लिखना बहुत सहज और आसान है, लेकिन अगर आप पत्रकारीय लेखन की प्रक्रिया और उसके तौर-तरीक़ों से वाक़िफ़ न हो तो आसान दिखने वाला लेखन ख़ासा मुश्किल और पसीना छुड़ानेवाला साबित हो सकता है।
अच्छे लेखन के लिए ध्यान रखने योग्य बातें :-
• छोटे वाक्य लिखें। जटिल वाक्य की तुलना में सरल वाक्य संरचना को वरीयता दें।
• आम बोलचाल की भाषा और शब्दों का इस्तेमाल करें। ग़ैर-ज़रूरी शब्दों के इस्तेमाल से बचें। शब्दों को उनके वास्तविक अर्थ समझकर ही प्रयोग करें।
• अच्छा लिखने के लिए अच्छा पढ़ना भी बहुत ज़रूरी है। जाने-माने लेखकों की रचनाएँ ध्यान से पढ़िए।
• लेखन में विविधता लाने के लिए छोटे वाक्यों के साथ-साथ कुछ मध्यम आकार के और कुछ बड़े वाक्यों का प्रयोग कर सकते हैं। इसके साथ-साथ मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से लेखन में रंग भरने की कोशिश कीजिए।
• अपने लिखे को दुबारा ज़रूर पढ़िए और अशुद्धियों के साथ-साथ ग़ैर-ज़रूरी चीज़ों को हटाने में संकोच मत कीजिए। लेखन में कसावट बहुत ज़रूरी है।
• लिखते हुए यह ध्यान रखिए कि आपका उद्देश्य अपनी भावनाओं, विचारों और तथ्यों को व्यक्त करना है न कि दूसरे को प्रभावित करना।
• एक अच्छे लेखक को पूरी दुनिया से लेकर अपने आसपास घटने वाली घटनाओं, समाज और पर्यावरण पर गहरी निगाह रखनी चाहिए और उन्हें इस तरह से देखना चाहिए कि वे अपने लेखन के लिए उससे विचारबिंदु निकाल सकें।
• एक अच्छे लेखक में तथ्यों को जुटाने और किसी विषय पर बारीकी से विचार करने का धैर्य होना चाहिए।
पत्रकारीय लेखन क्या है?
पत्रकारीय लेखन की दुनिया में आने की कोशिश करने वाले हर नए लेखक के लिए सबसे पहले यह समझना बहुत ज़रूरी है कि पत्रकारीय लेखन क्या है, समाज में उसकी भूमिका क्या है और वह अपनी इस भूमिका को कैसे पूरा करता है? दरअसल, अख़बार पाठकों को सूचना देने, जागरूक और शिक्षित बनाने और उनका मनोरंजन करने का दायित्व निभाते हैं। लोकतांत्रिक समाजों में वे एक पहरेदार, शिक्षक और जनमत निर्माता के तौर पर बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। अपने पाठकों के लिए वे बाहरी दुनिया में खुलने वाली ऐसी खिड़की हैं जिसके ज़रिए असंख्य पाठक हर रोज़ सुबह देश-दुनिया और अपने पास-पड़ोस की घटनाओं, समस्याओं, मुद्दों और विचारों से अवगत होते हैं।
अख़बार या अन्य समाचार माध्यमों में काम करने वाले पत्रकार अपने पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं तक सूचनाएँ पहुँचाने के लिए लेखन के विभिन्न रूपों का इस्तेमाल करते हैं। इसे ही पत्रकारीय लेखन कहते हैं और इसके कई रूप हैं। पत्रकार तीन तरह के होते हैं—पूर्णकालिक, अंशकालिक और फ्रीलांसर यानी स्वतंत्र। पूर्णकालिक पत्रकार किसी समाचार संगठन में काम करनेवाला नियमित वेतनभोगी कर्मचारी होता है जबकि अंशकालिक पत्रकार (स्ट्रिंगर) किसी समाचार संगठन के लिए एक निश्चित मानदेय पर काम करनेवाला पत्रकार है। लेकिन फ्रीलांसर पत्रकार का संबंध किसी ख़ास अख़बार से नहीं होता है बल्कि वह भुगतान के आधार पर अलग-अलग अख़बारों के लिए लिखता है।
ऐसे में, यह समझना बहुत ज़रूरी है कि पत्रकारीय लेखन का संबंध और दायरा समसामयिक और वास्तविक घटनाओं, समस्याओं और मुद्दों से है। हालाँकि यह माना जाता है कि पत्रकारिता जल्दी में लिखा गया साहित्य है। लेकिन यह साहित्यिक और सृजनात्मक लेखन-कविता, कहानी, उपन्यास आदि से इस मायने में अलग है कि इसका रिश्ता तथ्यों से है न कि कल्पना से। दूसरे, पत्रकारीय लेखन साहित्यिक सृजनात्मक लेखन से इस मायने में भी अलग है कि यह अनिवार्य रूप से तात्कालिकता और अपने पाठकों की रुचियों और ज़रूरतों को ध्यान में रखकर किया जाने वाला लेखन है। जबकि साहित्यिक रचनात्मक लेखन में लेखक को काफ़ी छूट होती है।
अख़बार और पत्रिका के लिए लिखने वाले लेखक पत्रकार को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि वह विशाल समुदाय के लिए लिख रहा है जिसमें एक विश्वविद्यालय के कुलपति सरीखे विद्वान से लेकर कम पढ़ा-लिखा मज़दूर और किसान सभी शामिल हैं। इसलिए उसकी लेखन शैली, भाषा और गूढ़ से गूढ़ विषय की प्रस्तुति ऐसी सहज, सरल और रोचक होनी चाहिए कि वह आसानी से सबकी समझ में आ जाए। पत्रकारीय लेखन में अलंकारिक-संस्कृतनिष्ठ भाषा-शैली के बजाए आम बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल किया जाता है।
पाठकों को ध्यान में रखकर ही अख़बारों में सीधी, सरल, साफ़-सुथरी लेकिन प्रभावी भाषा के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया जाता है। शब्द सरल और आसानी से समझ में आने वाले होने चाहिए। वाक्य छोटे और सहज होने चाहिए। जटिल और लंबे वाक्यों से बचना चाहिए। भाषा को प्रभावी बनाने के लिए ग़ैरज़रूरी विशेषणों, जार्गन्स (ऐसी शब्दावली जिससे बहुत कम पाठक परिचित होते हैं) और क्लीशे (पिष्टोक्ति या दोहराव) का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इनके प्रयोग से भाषा बोझिल हो जाती है।
समाचार कैसे लिखा जाता है?
पत्रकारीय लेखन का सबसे जाना-पहचाना रूप समाचार लेखन है। आमतौर पर अख़बारों में समाचार पूर्णकालिक और अंशकालिक पत्रकार लिखते हैं, जिन्हें संवाददाता या रिपोर्टर भी कहते हैं।
लेकिन समाचार लिखे कैसे जाते हैं? क्या समाचार लेखन की कोई विशेष शैली होती है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए ज़रूरी है कि अपनी पसंद के किसी भी अख़बार में छपनेवाली ख़बरों को ध्यान से पढ़िए। क्या आपको ऐसा लगता है कि उसमें छपी अधिकांश ख़बरें एक ख़ास शैली में लिखी गई हैं? आपने बिलकुल ठीक पहचाना। अख़बारों में प्रकाशित अधिकांश समाचार एक ख़ास शैली में लिखे जाते हैं। इन समाचारों में किसी भी घटना, समस्या या विचार के सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य, सूचना या जानकारी को सबसे पहले पैराग्राफ़ में लिखा गया है। उसके बाद के पैराग्राफ़ में उससे कम महत्त्वपूर्ण सूचना या तथ्य की जानकारी दी गई है। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक समाचार ख़त्म नहीं हो जाता।
पिछले अध्याय में हमनें समाचार लिखने की इस शैली के बारे में बताया है जैसा कि आपको पता है कि इसे समाचार लेखन को उलटा पिरामिड-शैली (इंवर्टेड पिरामिड स्टाइल) के नाम से जाना जाता है। यह समाचार लेखन की सबसे लोकप्रिय, उपयोगी और बुनियादी शैली है। यह शैली कहानी या कथा लेखन की शैली के ठीक उलटी है जिसमें क्लाइमेक्स बिलकुल आख़िर में आता है। इसे उलटा पिरामिड इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य या सूचना ‘यानी क्लाइमेक्स’ पिरामिड के सबसे निचले हिस्से में नहीं होती बल्कि इस शैली में पिरामिड को उलट दिया जाता है।
हालाँकि इस शैली का प्रयोग 19वीं सदी के मध्य से ही शुरू हो गया था लेकिन इसका विकास अमेरिका में गृहयुद्ध के दौरान हुआ। उस समय संवाददाताओं को अपनी ख़बरें टेलीग्राफ़ संदेशों के ज़रिए भेजनी पड़ती थीं जिसकी सेवाएँ महँगी, अनियमित और दुर्लभ थीं। कई बार तकनीकी कारणों से सेवा ठप्प हो जाती थी। इसलिए संवाददाताओं को किसी घटना की ख़बर कहानी की तरह विस्तार से लिखने के बजाए संक्षेप में देनी होती थी। इस तरह उलटा पिरामिड-शैली का विकास हुआ और धीरे-धीरे लेखन और संपादन की सुविधा के कारण यह शैली समाचार लेखन की मानक (स्टैंडर्ड) शैली बन गई।
समाचार लेखन और छह ककार
किसी समाचार को लिखते हुए मुख्यतः छह सवालों का जवाब देने की कोशिश की जाती है क्या हुआ, किसके साथ हुआ, कहाँ हुआ, कब हुआ, कैसे और क्यों हुआ? इस—क्या, किसके (या कौन), कहाँ, कब, क्यों और कैसे-को छह ककारों के रूप में भी जाना जाता है। किसी घटना, समस्या या विचार से संबंधित ख़बर लिखते हुए इन छह ककारों को ही ध्यान में रखा जाता है।
समाचार के मुखड़े (इंट्रो) यानी पहले पैराग्राफ़ या शुरुआती दो-तीन पंक्तियों में आमतौर पर तीन या चार ककारों को आधार बनाकर ख़बर लिखी जाती है। ये चार ककार हैं—क्या, कौन, कब और कहाँ? इसके बाद समाचार की बॉडी में और समापन के पहले बाक़ी दो ककारों—कैसे और क्यों का जवाब दिया जाता है। इस तरह छह ककारों के आधार पर समाचार तैयार होता है। इनमें से पहले चार ककार—क्या, कौन, कब और कहाँ सूचनात्मक और तथ्यों पर आधारित होते हैं जबकि बाक़ी दो ककारों—कैसे और क्यों में विवरणात्मक, व्याख्यात्मक और विश्लेषणात्मक पहलू पर ज़ोर दिया जाता है।
उपरोक्त समाचार के पहले पैराग्राफ़ यानी मुखड़े (इंट्रो) में चार ककारों-क्या, कौन, कब और कहाँ—के बाबत जानकारी दी गई है जबकि उसके बाद के तीन पैराग्राफ़ में दो अन्य ककारों—कैसे और क्यों—के ज़रिए दुर्घटना के कारणों पर रोशनी डाली गई है। अधिकांश समाचार इसी शैली में लिखे जाते हैं। लेकिन कभी-कभी अपने महत्त्व के कारण कैसे या क्यों भी समाचार के मुखड़े में आ सकते हैं। एक और बात याद रखने की है कि समाचार में सूचना के स्रोत यानी जिससे जानकारी मिली है, उसको भी अवश्य उद्धृत करना चाहिए। जैसे उपरोक्त समाचार में प्रत्यक्षदर्शियों और आपात मामलों के मंत्री को उद्धृत किया गया है।
फ़ीचर क्या है?
अख़बारों में समाचारों के अलावा भी अन्य कई तरह का पत्रकारीय लेखन छपता है। इनमें फ़ीचर प्रमुख है। समाचार और फ़ीचर के बीच स्पष्ट अंतर होता है। फ़ीचर एक सुव्यवस्थित, सृजनात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन है जिसका उद्देश्य पाठकों को सूचना देने, शिक्षित करने के साथ मुख्य रूप से उनका मनोरंजन करना होता है। फ़ीचर समाचार की तरह पाठकों को तात्कालिक घटनाक्रम से अवगत नहीं कराता। फ़ीचर लेखन की शैली भी समाचार लेखन की शैली से अलग होती है। समाचार लेखन में वस्तुनिष्ठता और तथ्यों की शुद्धता पर ज़ोर दिया जाता है यानी समाचार लिखते हुए रिपोर्टर उसमें अपने विचार नहीं डाल सकता जबकि फ़ीचर में लेखक के पास अपनी राय या दृष्टिकोण और भावनाएँ ज़ाहिर करने का अवसर होता है।
दूसरे, फ़ीचर लेखन में उलटा पिरामिड-शैली का प्रयोग नहीं होता यानी फ़ीचर लेखन का कोई एक तय ढाँचा या फ़ार्मूला नहीं होता है। फ़ीचर लेखन की शैली काफ़ी हद तक कथात्मक की तरह है। तीसरे, फ़ीचर लेखन की भाषा समाचारों के विपरीत सरल, रूपात्मक, आकर्षक और मन को छूनेवाली होती है। फ़ीचर की भाषा में समाचारों की सपाटबयानी नहीं चलती। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि फ़ीचर की भाषा और शैली को अलंकारिक और दुरूह बना दिया जाए। चौथे, फ़ीचर में समाचारों की तरह शब्दों की कोई अधिकतम सीमा नहीं होती। फ़ीचर आमतौर पर समाचार रिपोर्ट से बड़े होते हैं। अख़बारों और पत्रिकाओं में 250 शब्दों से लेकर 2000 शब्दों तक के फ़ीचर छपते हैं।
एक अच्छे और रोचक फ़ीचर के साथ रेखांकन, ग्राफ़िक्स आदि का होना ज़रूरी है। फ़ीचर का विषय कुछ भी हो सकता है। हलके फुलके विषयों से लेकर गंभीर विषयों और मुद्दों पर भी फ़ीचर लिखा जा सकता है। जैसे आप अपने स्कूल पर एक परिचयात्मक फ़ीचर लिखने से लेकर उसके सालाना समारोह या अपनी शैक्षणिक यात्रा (स्टडी टूर) पर केंद्रित फ़ीचर लिख सकते हैं। दरअसल, फ़ीचर एक तरह का ट्रीटमेंट है जो आमतौर पर विषय और मुद्दे की ज़रूरत के मुताबिक़ उसे प्रस्तुत करते हुए दिया जाता है। यही कारण है कि समाचार और फ़ीचर अलग होने के बावजूद कुछ समाचारों को फ़ीचर शैली में भी लिखा जाता है। लेकिन हर समाचार को फ़ीचर शैली में नहीं लिखा जा सकता है। फ़ीचर शैली का इस्तेमाल हलके-फुलके, नर्म और मानवीय रुचि के समाचारों को लिखते हुए ही किया जाता है।
फ़ीचर कैसे लिखें?
फ़ीचर लिखते हुए कुछ बातों का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है। पहली बात यह है कि फ़ीचर को सजीव बनाने के लिए उसमें उस विषय से जुड़े लोगों यानी पात्रों की मौज़ूदगी ज़रूरी है। दूसरे, कहानी को उनके ज़रिए कहने की कोशिश कीजिए यानी पात्रों के माध्यम से उस विषय के विभिन्न पहलुओं को सामने ले आइए। तीसरे, कहानी को बताने का अंदाज़ ऐसा हो कि आपके पाठक यह महसूस करें कि वे खुद देख और सुन रहे हैं। चौथे, फ़ीचर को मनोरंजक होने के साथ-साथ सूचनात्मक होना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि फ़ीचर को किसी बैठक या सभा के कार्यवाही विवरण की तरह नहीं लिखा जाना चाहिए। साथ ही, फ़ीचर कोई नीरस शोध रिपोर्ट भी नहीं है। वह बड़ी घटनाओं, कार्यक्रमों और आयोजनों की सूखी और बेजान रिपोर्ट भी नहीं है। फ़ीचर आमतौर पर तथ्यों, सूचनाओं और विचारों पर आधारित कथात्मक विवरण और विश्लेषण होता है। फ़ीचर की कोई न कोई थीम होनी चाहिए। उस थीम के इर्द-गिर्द सभी प्रासंगिक सूचनाएँ, तथ्य और विचार गुथे होने चाहिए। फ़ीचर कई प्रकार के होते हैं। इनमें समाचार बैकग्राउंडर, खोजपरक फ़ीचर, साक्षात्कार फ़ीचर, जीवनशैली फ़ीचर, रूपात्मक फ़ीचर, व्यक्तिचित्र फ़ीचर, यात्रा फ़ीचर और विशेषरुचि के फ़ीचर प्रमुख हैं।
फ़ीचर लेखन का कोई निश्चित ढाँचा या फ़ॉर्मूला नहीं होता है। इसलिए आप फ़ीचर कहीं से भी शुरू कर सकते हैं। हर फ़ीचर का एक प्रारंभ, मध्य और अंत होता है। प्रारंभ आकर्षक और उत्सुकता पैदा करनेवाला होना चाहिए। हालाँकि प्रारंभ, मध्य और अंत को अलग-अलग देखने के बजाए पूरे फ़ीचर को समग्रता में देखना चाहिए लेकिन अगर फ़ीचर का प्रारंभ आकर्षक, रोचक और प्रभावी हो तो बाक़ी पूरा फ़ीचर भी पठनीय और रोचक बन सकता है। जैसे अगर आप किसी जाने-माने व्यक्ति पर एक व्यक्तिचित्र फ़ीचर तैयार कर रहे हैं तो उसकी शुरुआत किसी ऐसी घटना के उल्लेख से कर सकते हैं जिसने उनके जीवन की दिशा बदल दी या उसकी शुरुआत उनकी किसी ताज़ा उपलब्धि के ब्योरे से हो सकती है और फिर फ़ीचर को उनके पिछले जीवन के संघर्षों की ओर मोड़ा जा सकता है।
इसके बाद फ़ीचर में उनके और उनके कुछ क़रीबी लोगों और उनकी उपलब्धियों से वाक़िफ़ विशेषज्ञों के दिलचस्प, आकर्षक और ख़ास वक्तव्यों को उद्धृत करते हुए उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया जा सकता है। फ़ीचर में एक या दो ऐसी घटनाओं को ख़ुद उनकी ज़ुबान में पेश किया जा सकता है जो न सिर्फ़ दिलचस्प और अनूठी जीवन के अहम क्षणों पर रोशनी पड़ती हो।
हाँ बल्कि उससे उनके फ़ीचर के आख़िरी हिस्से में उनकी भविष्य की योजनाओं पर फोकस करना चाहिए। वे अपने सामने क्या चुनौतियाँ देखते हैं और उनसे निपटने के लिए उनकी क्या तैयारी है। यहाँ आप स्वयं उन्हें उद्धृत कर सकते हैं। इस तरह फ़ीचर का प्रारंभ, मध्य और अंत का यह एक संभावित ढाँचा हो सकता है। लेकिन असली चुनौती यह होती है कि प्रारंभ, मध्य और अंत को सहज और स्वाभाविक तरीक़े से एक साथ कैसे बाँधे? हर पैराग्राफ़ अपने पहले के पैराग्राफ़ से सहज तरीक़े से जुड़ा हो और शुरू से आख़िर तक प्रवाह और गति बनी रहे, यह सुनिश्चित करने के लिए पैराग्राफ़ छोटे रखिए और एक पैराग्राफ़ में एक पहलू पर ही फोकस कीजिए।
विशेष रिपोर्ट कैसे लिखें?
अख़बारों और पत्रिकाओं में सामान्य समाचारों के अलावा गहरी छानबीन, विश्लेषण और व्याख्या के आधार पर विशेष रिपोर्ट भी प्रकाशित होती हैं। ऐसी रिपोर्टों को तैयार करने के लिए किसी घटना, समस्या या मुद्दे की गहरी छानबीन की जाती है। उससे संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्यों को इकट्ठा किया जाता है। तथ्यों के विश्लेषण के ज़रिए उसके नतीजे, प्रभाव और कारणों को स्पष्ट किया जाता है।
विशेष रिपोर्ट के भी कई प्रकार होते हैं। खोजी रिपोर्ट (इंवेस्टिगेटिव रिपोर्ट), इन-डेप्थ रिपोर्ट, विश्लेषणात्मक रिपोर्ट और विवरणात्मक रिपोर्ट—विशेष रिपोटों के कुछ प्रमुख प्रकार हैं। खोजी रिपोर्ट में रिपोर्टर मौलिक शोध और छानबीन के ज़रिए ऐसी सूचनाएँ या तथ्य सामने लाता है जो सार्वजनिक तौर पर पहले से उपलब्ध नहीं थीं। खोजी रिपोर्ट का इस्तेमाल आमतौर पर भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और गड़बड़ियों को उजागर करने के लिए किया जाता है।
इन-डेप्थ रिपोर्ट में सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध तथ्यों, सूचनाओं और आँकड़ों की गहरी छानबीन की जाती है और उसके आधार पर किसी घटना, समस्या या मुद्दे से जुड़े महत्त्वपूर्ण पहलुओं को सामने लाया जाता है। इसी तरह विश्लेषणात्मक रिपोर्ट में जोर किसी घटना या समस्या से जुड़े तथ्यों के विश्लेषण और व्याख्या पर होता है जबकि विवरणात्मक रिपोर्ट में किसी घटना या समस्या के विस्तृत और बारीक विवरण को प्रस्तुत करने की कोशिश की जाती है।
आमतौर पर विभिन्न प्रकार की विशेष रिपोर्टों को समाचार लेखन की उलटा पिरामिड-शैली में ही लिखा जाता है लेकिन कई बार ऐसी रिपोटों को फ़ीचर शैली में भी लिखा जाता है। चूँकि ऐसी रिपोर्ट सामान्य समाचारों की तुलना में बड़ी और विस्तृत होती है, इसलिए पाठकों की रुचि बनाए रखने के लिए कई बार उलटा पिरामिड और फ़ीचर दोनों ही शैलियों को मिलाकर इस्तेमाल किया जाता है। रिपोर्ट बहुत विस्तृत और बड़ी हो तो उसे शृंखलाबद्ध करके कई दिनों तक किस्तों में छापा जाता है। विशेष रिपोर्ट की भाषा सरल, सहज और आम बोलचाल की होनी चाहिए। विशेष रिपोर्ट का एक उदाहरण प्रस्तुत है—
बिरहोरों का विलुप्त होता संसार
झबहर, पलामू (बिहार): अखू बिरहोर की विधवा पत्तियों और घास-फूस से बनी अपनी कुंभा या झोपड़ी के बग़ल में चुपचाप बैठी है। बिरहोर बस्ती पलामू ज़िले के बालूमठ ब्लाक में स्थित झबहर गाँव के बिलकुल बाहर है। झबहर के लोग, जिनमें से कुछ ने ज़िला मुख्यालय डाल्टनगंज के शानदार बंगलों को देखा है, इन कुंभों को एयरकंडीशंड कहते हैं, वे ऐसा क्यों कहते हैं यह हमें उस समय पता चला जब छोटानागपुर से आने चाली ठंडी हवाएँ इन झोपड़ों से होकर गुप्तरों और ठंड से हमारी हड्डियाँ काँप गई।
बिरहोर भी उसी आस्ट्रो-एशियाटिक भाषाई समूह के हैं जिनमें हो, संथाल या मुंडा जनजाति के लोग आते हैं। वे जंगल (बिर) के लोग (हो) हैं। छोटानागपुर क्षेत्र की ख़ानाबदोश जाति के ये लोग मुख्य रूप से पलामू, राँची, लोहरदगा, हज़ारीबाग और सिंहभूम के आसपास विचरते रहते हैं। कई मामलों में बिरहोर लोग अजीबोगरीब प्राणी हैं।
इनकी जाति भी समाप्त होती जा रही है। 1971 की जनगणना में बताया गया कि उस वर्ष इनकी संख्या लगभग 4000 थी। अब वे (1993 में) महज़ 2000 के आसपास हैं। हो सकता है इससे भी कम हो। इसमें उड़ीसा से लगभग 144 और मध्य प्रदेश के 67 भी शामिल है। बेशक इनका मुख्य समूह बिहार में है। इस राज्य में 1971 की जनगणना के समय इनकी संख्या 3,464 थी। 1987 में बिहार के एक सरकारी अध्ययन के मुताबिक़ इनकी संख्या घटकर 159 हो गई थी। मध्य प्रदेश में इनकी संख्या 1971 में 738 से घटकर 1991 में 67 हो गई थी।
इनके समाप्त होते जाने की वजह उन जंगलों का धुँआधार ढंग से विनाश है जिन पर ये निर्भर हैं। इनकी ज़रूरतों अथवा इनके अजीबोग़रीब स्वरूप पर ध्यान दिए बिना तैयार की गई विकास प्रक्रिया से कोई मदद नहीं मिली। बिरहोर मुख्य रूप से शिकार जुटाने वाली जाति रही हैं। वे रस्सियाँ बनाने और लकड़ी का काम भी करते रहे हैं। जंगलों को आरक्षित कर दिए जाने के बाद से वे न तो लकड़ी काट सकते थे और न रस्सी बनाने के लिए रेशा निकाल सकते थे। वे जो सामान तैयार करते थे उनकी क़ीमत इतनी कम मिलती थी कि उनकी लागत भी नहीं निकल पाती थी। जब कुछ इलाक़ों में जंगलों की ज़बरदस्त कटाई होने लगी तो शिकार के काम से भी इनकी छुट्टी हो गई। प्राकृतिक विपदा या संकट के समय सबसे ज़्यादा मार इन पर ही पड़ती है।
इस जनजाति के बारे में अज्ञानता से भी काफ़ी गड़बड़ हुई। इसी कारण बिरहोरों के बारे में जनगणना का आँकड़ा भी ग़लतियों से भरा है। यहाँ के लोग बिरहोर हैं। उड़ीसा के सुंदरगढ़ ज़िले में स्थानीय लोग इन्हें मनकिदी कहते हैं। संबलपुर जिले में ये मनकिर्दिया हो जाते है। ये दोनों नाम बंदरों को पकड़ने में इनकी निपुणता के कारण है। चूँकि बंदर प्रायः फ़सलों और फलों को बर्बाद करते रहते हैं, स्थानीय लोग बंदरों को पकड़ने के लिए बिरहोरों को लगाते हैं। जंगलों के ख़त्म होने के साथ उनका यह काम भी ख़त्म हो गया।
1971 में इस ख़ानाबदोश समूह को उड़ीसा में तीन अलग-अलग जनजातियों-बिरहोर, मनकिदी और मनकिर्दिया—के रूप में गिनती करके काम समाप्त कर दिया गया। इस ग़लती को 1981 में दुरुस्त किया गया और इनकी गिनती एक जनजाति के रूप में की गई। इस तरह उस राज्य में बिरहोरों की संख्या में 44 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हो गया जबकि सच्चाई यह थी कि उनका समूह कम होता जा रहा था। उड़ीसा सरकार ने इस बढ़ोतरी पर अपनी पीठ थपथपाई। इसलिए बिरहोरों के बारे में आँकड़ा बेहद अविश्वसनीय है।
शिकारी के रूप में बिरहोर लोग बड़े-बड़े जंगलों के साथ अपने जीवन की भरपूर संगति बैठा कर रहते थे। जंगलों का उन्होंने कभी फ़िजूल इस्तेमाल नहीं किया और हमेशा वे विवेक से काम लेते रहे। यहाँ तक कि कायदे से देखा जाए तो उनकी बस्तियों में भी दस से ज़्यादा झोपड़ियाँ नहीं दिखाई देतीं। उनकी ये बस्तियाँ जंगल में चारों तरफ फैली रहती हैं। इससे फ़ायदा यह होता है कि जो विभिन्न समूह हैं उनको जंगल के संसाधनों में हिस्सा बँटाने का समान और उचित अवसर मिल जाता है। आज अपनी पैतृक भूमि बिहार में वे जंगलों की अभूतपूर्व कटाई और विकास के शिकार हो गए हैं।
इनकी इस दुरावस्था के लिए शराबखोरी भी काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है। बावजूद इसके यहाँ अपराध नहीं है। झबहर पंचायत के एक सदस्य ने बताया कि ये लोग अद्भुत प्राणी हैं। अगर इन्हें पता चल जाता है कि एक मील दूर पर भी कहीं कोई डकैती वगैरह पड़ रही है तो वे इसे अपना व्यक्तिगत मामला मानते हुए लाठी डंडा लेकर दौड़ पड़ते हैं। मैंने आज तक किसी बिरहोर को अपराध करते हुए नहीं देखा। झबहर के लोग बिरहोरों के प्रति असाधारण रूप से उदार हैं। बेशक, पलामू और हज़ारीबाग़ के अलावा इन लोगों को आमतौर पर उपेक्षा का ही शिकार होना पड़ा है।
जहाँ तक सरकारी कार्यक्रमों की बात है, इनमें से ज़्यादातर बेकार ही साबित हुए हैं। इसे आप यह भी कह सकते हैं कि सरकारी कार्यक्रमों को भ्रष्ट तंत्र ले उड़ता है। आवास योजनाएँ विनाशकारी साबित हुई क्योंकि जिन वास्तुकारों ने इनके लिए मकानों की योजना तैयार की थी, उन्होंने कभी बिरहोर लोगों को देखा ही नहीं था। उन्हें इनकी व्यावहारिक विशिष्टताओं की भी कोई जानकारी नहीं थी। इन आदिवासियों की स्वास्थ्य संबंधी चिंताजनक स्थिति को देखते हुए सरकार ने कुछ योजनाएँ तैयार की लेकिन अफ़सरों और उनके दलालों ने इन योजनाओं के लिए निर्धारित रकम को हड़प लिया।
झबहर गाँव के एक निवासी ने हँसते हुए कहा कि “यहाँ तक कि इनके पास तीसरी फ़सल भी नहीं पहुँच सकी।” मैंने उत्सुकतावश पूछा—तीसरी फ़सल का क्या मतलब? मुझे तो अभी तक केवल दो ही फ़सलों की जानकारी है। मैंने ग़ौर किया कि उसे इस सवाल की उम्मीद थी। उसने बताया—“इस इलाक़े में तीसरी फ़सल है, सूखा राहत। इसके लिए बहुत ज़्यादा पैसा मिलता है लेकिन इस फ़सल को आमतौर से ब्लाक स्तर के अफ़सर और उनके ठेकेदार दोस्त काट ले जाते हैं। केवल मामूली सा हिस्सा जनता तक पहुँचता है। अब उस मामूली से हिस्से में से बिरहोर लोगों को क्या मिले? वे तो जंगल में कंदमूल और बेर, मौसमी फल आदि खाकर ज़िंदा रहते हैं और कभी-कभी तो कई-कई दिनों तक भूखे ही रह जाते हैं।” दिनों तक भूखे।
जब हमने रामवृक्ष बिरहोर को ‘देशज लोगों के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष (1993)’ के बारे में बताया तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ। “क्या सचमुच यह हमलोगों के लिए बनाया गया था?” उसने सवाल किया। फिर कुछ देर सोचने के बाद उसने कहा—ऐसा नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता तो हम अभी तक इस हालत में नहीं पड़े रहते। उसने अपना सामान उठाया और चुपचाप वहाँ से चला गया। चौबे ने कहा—जहाँ तक मुझे जानकारी है, इस क्षेत्र में कभी किसी बिरहोर का नाम मतदाता सूची में नहीं रहा। यह समूह भारतीय समाज के सबसे निचले हिस्से में रहता है। ख़रगोश पकड़ना, रस्सियाँ बुनना, तैयार होने पर कुछ डोलचियाँ बेच देना इन गतिविधियों को देखते हुए लगता है कि बिरहोर लोग अभी किसी दूसरे युग में रह रहे हैं। उनके अंदर जमा पूँजी रखने की प्रवृत्ति नहीं है और उनका जीवन आत्मसम्मान से भरा रहता है।
(पी. साईनाथ का यह आलेख विशेष रिपोर्ट के साथ-साथ एक अच्छे फ़ीचर का भी बढ़िया उदाहरण है।)
विचारपरक लेखन-लेख, टिप्पणियाँ और संपादकीय
अख़बारों में समाचार और फ़ीचर के अलावा विचारपरक सामग्री का भी प्रकाशन होता है। कई अख़बारों की पहचान उनके वैचारिक रुझान से होती है। एक तरह से अख़बारों में प्रकाशित होने वाले विचारपूर्ण लेखन से उस अख़बार की छवि बनती है। अख़बारों में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाले संपादकीय अग्रलेख, लेख और टिप्पणियाँ इसी विचारपरक पत्रकारीय लेखन की श्रेणी में आते हैं। इसके अलावा विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों या वरिष्ठ पत्रकारों के स्तंभ (कॉलम) भी विचारपरक लेखन के तहत आते हैं। कुछ अख़बारों में संपादकीय पृष्ठ के सामने ऑप-एड पृष्ठ पर भी विचारपरक लेख, टिप्पणियाँ और स्तंभ प्रकाशित होते हैं।
संपादकीय लेखन
संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाले संपादकीय को उस अख़बार की अपनी आवाज़ माना जाता है। संपादकीय के ज़रिए अख़बार किसी घटना, समस्या या मुद्दे के प्रति अपनी राय प्रकट करते हैं। संपादकीय किसी व्यक्ति विशेष का विचार नहीं होता इसलिए उसे किसी के नाम के साथ नहीं छापा जाता। संपादकीय लिखने का दायित्व उस अख़बार में काम करने वाले संपादक और उनके सहयोगियों पर होता है। आमतौर पर अख़बारों में सहायक संपादक, संपादकीय लिखते हैं। कोई बाहर का लेखक या पत्रकार संपादकीय नहीं लिख सकता है।
हिंदी के अख़बारों में कुछ में तीन, कुछ में दो और कुछ में केवल एक संपादकीय प्रकाशित होता है। संपादकीय का एक उदाहरण प्रस्तुत है—
मूल्यांकन का दायरा
अगले विद्यालयों शिक्षा-सत्र से विद्यार्थियों के सतत और व्यापक मूल्यांकन की प्रक्रिया लागू हो जाएगी। इससे पाठ्यपुस्तकों का बोझ और परीक्षा का तनाव कम करने का सरकार का मक़सद किसी हद तक पूरा हो सकता है। इस प्रक्रिया को अपनाने का प्रस्ताव राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् का था। फ़िलहाल लिखित और प्रायोगिक परीक्षाओं के आधार पर मूल्यांकन का प्रावधान है। जबकि विद्यालय में रहते हुए विद्यार्थी की सक्रियता पाठ्यपुस्तकों तक सीमित नहीं होती। वह खेलकूद, संगीत, भाषण, वाद-विवाद जैसी अनेक रचनात्मक गतिविधियों में भी शरीक होता है।
इनका पाठ्यक्रम से सीधे-सीधे कोई संबंध भले न हो, पर ये विद्यार्थी के सीखने-समझने की प्रक्रिया का हिस्सा होती हैं। इसलिए इस बात की ज़रूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है कि विद्यार्थी का समग्र मूल्यांकन होना चाहिए। लिखित और प्रायोगिक परीक्षा के आधार पर सिर्फ़ पाठगत ज्ञान और बोध को जाँचा परखा जा सकता है। प्रो. यशपाल भी विद्यार्थी के समग्र मूल्यांकन के पक्षधर रहे हैं। जब एनसीईआरटी की नई पाठ्यचर्या की रूपरेखा तैयार करने के लिए उनकी अध्यक्षता में समिति का गठन किया गया तभी उन्होंने सतत् और व्यापक मूल्यांकन की पद्धति अपनाने का सुझाव दिया था। अब यह विद्यालयों की ज़िम्मेदारी होगी कि वे विद्यार्थियों की शैक्षणिक योग्यता के साथ ही उनकी दूसरी गतिविधियों को भी आँकें। इसके लिए सौ में से बीस अंक निर्धारित किए गए हैं। इन्हें विद्यार्थी के वार्षिक और बोर्ड परीक्षाओं में प्राप्त अंकों में जोड़ा जाएगा। इस पद्धति के लागू होने से जहाँ विद्यार्थियों में पाठ्यक्रम से अलग स्कूली गतिविधियों में हिस्सा लेने का उत्साह बढ़ेगा वहीं अध्यापक भी इनके प्रति अधिक ज़िम्मेदारी महसूस करेंगे।
हालाँकि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड और हरियाणा बोर्ड के विद्यालयों में आंतरिक मूल्यांकन पद्धति पहले से लागू है और दूसरे कई राज्यों में इस पर विचार चल रहा है, लेकिन इसके अंक वार्षिक और बोर्ड परीक्षा के अंकों में जोड़े जाने का प्रावधान न होने के कारण समग्र मूल्यांकन का मक़सद पूरा नहीं हो पा रहा था। एनसीईआरटी की नई पाठ्यचर्या में विद्यार्थियों को खेल-खेल में, अपने आसपास के वातावरण और रोज़मर्रा की ज़िंदगी से भी सीखने-सिखाने पर ज़ोर है। इसलिए प्रस्तावित मूल्यांकन पद्धति से यह प्रक्रिया और पुष्ट होगी। देखा जाता है कि पाठ्यक्रम पर अधिक जोर होने के कारण अनेक विद्यार्थी खेलकूद, सांस्कृतिक, सामाजिक और कलात्मक गतिविधियों में दिलचस्पी नहीं लेते। अभिभावक भी बच्चों को इनके प्रति प्रोत्साहित नहीं करते। निजी स्कूलों में सह-शैक्षणिक गतिविधियों पर ज़रूर कुछ ध्यान दिया जाता है, मगर ज़्यादातर सरकारी स्कूल इनके प्रति उदासीन ही दिखाई देते हैं। समग्र मूल्यांकन की पद्धति लागू होने से वे ऐसी गतिविधियाँ आयोजित करने के लिए बाध्य होंगे। चूँकि इस पद्धति में विद्यार्थी की सामाजिक सक्रियता और अनुशासन जैसे गुणों का भी मूल्यांकन आवश्यक होगा इसलिए अध्यापकों की भूमिका अध्यापन तक सीमित नहीं रहेगी। शिक्षणेतर गतिविधियों की बाबत अध्यापकों में जागरूकता और जानकारी की कमी भी विद्यार्थियों की कलात्मक, सांस्कृतिक या सामाजिक कार्य संबंधी क्षमताओं के विकास में रोड़ा साबित होती रही हैं। इसलिए ऐसी गतिविधियों के मद्देनज़र अध्यापकों के प्रशिक्षण पर भी ध्यान देना होगा।
जनसता में प्रकाशित संपादकीय
स्तंभ लेखन
इसी तरह स्तंभ लेखन भी विचारपरक लेखन का एक प्रमुख रूप है। कुछ महत्त्वपूर्ण लेखक अपने ख़ास वैचारिक रुझान के लिए जाने जाते हैं। उनकी अपनी एक लेखन शैली भी विकसित हो जाती है। ऐसे लेखकों की लोकप्रियता को देखकर अख़बार उन्हें एक नियमित स्तंभ लिखने का ज़िम्मा दे देते हैं। स्तंभ का विषय चुनने और उसमें अपने विचार व्यक्त करने की स्तंभ लेखक को पूरी छूट होती है। स्तंभ में लेखक के विचार अभिव्यक्त होते हैं। यही कारण है कि स्तंभ अपने लेखकों के नाम पर जाने और पसंद किए जाते हैं। कुछ स्तंभ इतने लोकप्रिय होते हैं कि अख़बार उनके कारण भी पहचाने जाते हैं। लेकिन नए लेखकों को स्तंभ लेखन का मौक़ा नहीं मिलता है।
संपादक के नाम पत्र
अख़बारों के संपादकीय पृष्ठ पर और पत्रिकाओं की शुरुआत में संपादक के नाम पाठकों के पत्र भी प्रकाशित होते हैं। सभी अख़बारों में यह एक स्थायी स्तंभ होता है। यह पाठकों का अपना स्तंभ होता है। इस स्तंभ के ज़रिए अख़बार के पाठक न सिर्फ़ विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त करते हैं बल्कि जन समस्याओं को भी उठाते हैं। एक तरह से यह स्तंभ जनमत को प्रतिबिंबित करता है। ज़रूरी नहीं कि अख़बार पाठकों द्वारा व्यक्त किए गए विचारों से सहमत हो। यह स्तंभ नए लेखकों के लिए लेखन की शुरुआत करने और उन्हें हाथ माँजने का भी अच्छा अवसर देता है।
लेख
सभी अख़बार संपादकीय पृष्ठ पर समसामयिक मुद्दों पर वरिष्ठ पत्रकारों और उन विषयों के विशेषज्ञों के लेख प्रकाशित करते हैं। इन लेखों में किसी विषय या मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की जाती है। लेख विशेष रिपोर्ट और फ़ीचर से इस मामले में अलग है कि उसमें लेखक के विचारों को प्रमुखता दी जाती है। लेकिन ये विचार तथ्यों और सूचनाओं पर आधारित होते हैं और लेखक उन तथ्यों और सूचनाओं के विश्लेषण और अपने तर्कों के ज़रिए अपनी राय प्रस्तुत करता है। लेख लिखने के लिए पर्याप्त तैयारी ज़रूरी है। इसके लिए उस विषय से जुड़े सभी तथ्यों और सूचनाओं के अलावा पृष्ठभूमि सामग्री भी जुटानी पड़ती है। यह भी देखना चाहिए कि उस विषय पर दूसरे लेखकों और पत्रकारों के क्या विचार हैं?
लेख की कोई एक निश्चित लेखन शैली नहीं होती और हर लेखक की अपनी शैली होती है। लेकिन अगर आप अख़बारों और पत्रिकाओं के लिए लेख लिखना चाहते हैं तो शुरुआत उन विषयों के साथ करनी चाहिए जिस पर आपको अच्छी पकड़ और जानकारी हो। लेख का भी एक प्रारंभ, मध्य और अंत होता है। लेख की शुरुआत में अगर उस विषय के सबसे ताज़ा प्रसंग या घटनाक्रम का विवरण दिया जाए और फिर उससे जुड़े अन्य पहलुओं को सामने लाया जाए, तो लेख का प्रारंभ आकर्षक बन सकता है। इसके बाद तथ्यों की मदद से विश्लेषण करते हुए में आप अपना निष्कर्ष या मत प्रकट कर सकते हैं।
साक्षात्कार/इंटरव्यू
समाचार माध्यमों में साक्षात्कार का बहुत महत्त्व है। पत्रकार एक तरह से साक्षात्कार के ज़रिए ही समाचार, फ़ीचर, विशेष रिपोर्ट और अन्य कई तरह के पत्रकारीय लेखन के लिए कच्चा माल इकट्ठा करते हैं। पत्रकारीय साक्षात्कार और सामान्य बातचीत में यह फ़र्क़ होता है कि साक्षात्कार में एक पत्रकार किसी अन्य व्यक्ति से तथ्य, उसकी राय और भावनाएँ जानने के लिए सवाल से साथ पूछता है। साक्षात्कार का एक स्पष्ट मक़सद और ढाँचा होता है। एक सफल साक्षात्कार के लिए आपके पास न सिर्फ़ ज्ञान होना चाहिए बल्कि आपमें संवेदनशीलता, कूटनीति, धैर्य और साहस जैसे गुण भी होने चाहिए।
एक अच्छे और सफल साक्षात्कार के लिए यह ज़रूरी है कि आप जिस विषय पर और जिस व्यक्ति के साथ साक्षात्कार करने जा रहे हैं, उसके बारे में आपके पास पर्याप्त जानकारी हो। दूसरे, आप साक्षात्कार से क्या निकालना चाहते हैं, इसके बारे में स्पष्ट रहना बहुत ज़रूरी है। आपको वे सवाल पूछने चाहिए जो किसी अख़बार के एक आम पाठक के मन में हो सकते हैं। साक्षात्कार को अगर रिकार्ड करना संभव हो तो बेहतर है लेकिन अगर ऐसा संभव न हो तो साक्षात्कार के दौरान आप नोट्स लेते रहें। साक्षात्कार को लिखते समय आप दो में से कोई भी एक तरीक़ा अपना सकते हैं। एक आप साक्षात्कार को सवाल और फिर जवाब के रूप में लिख सकते हैं या फिर उसे एक आलेख की तरह से भी लिख सकते हैं।
व्यक्तिचित्र फ़ीचर समाचार का एक उदाहरण
मुंबई, 16 अगस्त। देश को ब्रिटिश शासन से आज़ाद हुए 57 साल हो चुके हैं लेकिन 84 साल के गांधीवादी माधवदास ठाकरसे का मिशन अभी तक अनवरत जारी है। वे होम्योपैथिक दवाओं से रोगियों का इलाज करते हैं और उनके लिए रविवार का दिन भी अन्य दिनों की तरह ही व्यस्त रहता है। वे सुबह तीन बजे उठकर स्नान कर लेते हैं। उसके बाद वे बोरीवली स्कूल का दौरा करते हैं, फिर पाँच घंटे तक चरखे से सूत कातने के बाद रोगियों से मिलते हैं।
ठाकरसे एक सक्रिय स्वतंत्रता सेनानी हैं और उन्होंने महात्मा गांधी से प्रभावित होकर आज़ादी के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उस समय वे महज़ 17 साल के छरहरे और आकर्षक युवक थे। उन्होंने बताया कि बापू का आदर्श और उनकी प्रार्थना सभाएँ काफ़ी प्रभावित करने वाली थीं। स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने का फ़ैसला उन्होंने अचानक किया। उनके पिता एक संपन्न व्यापारी थे लेकिन उन्होंने उनके काम में हाथ बंटाने के बजाय देश के लिए काम करना बेहतर समझा। ठाकरसे ने बीते दिनों को याद करते हुए कहा—“मेरे पिता के अपार धन का कोई मतलब नहीं था।” वे ग्रामदेवी स्थित मणिभवन के सामने छह कमरे के अपने मकान में बैठकर बात कर रहे थे। वे फ़िलहाल पिता का घर छोड़कर फ़ोर्ट के एक कमरे के फ़्लैट में रह रहे हैं और अपनी आय का ज़्यादातर हिस्सा मुफ़्त होम्योपैथिक दवाएँ बाँटने में ख़र्च करते हैं। उनके माता-पिता ने उनकी शादी बुद्धिमान और व्यवहार कुशल मालती से यह सोचकर कराई थी कि वह ठाकरसे की सोच में बदलाव ला सकेंगी। लेकिन ठाकरसे की प्रतिज्ञा अटल थी। सचाई तो यह है कि मालती अक्सर उनके पैम्पलेट की प्रूफ़ रीडिंग कर उनकी मदद ही किया करती थीं। इस हठयोगी का आज़ादी का जुनून अभी भी उतना ही पक्का है।
ठाकरसे के सात बच्चों में से एक उनकी बेटी जयश्री का कहना है—“उनका आदर्श आज की दुनिया से अलग है लेकिन वे अभी तक नहीं बदल पाए। वे कई दिनों तक पानी के बिना रह सकते हैं और किसी को रिश्वत नहीं देते हैं।” इटली के वाणिज्य दूतावास में काम करने वाली उनकी बेटी कल्पना मुस्कुराती हुई कहती हैं—“वे अभी भी अपने कपड़े खुद धोते हैं और न ही किसी को उपहार देते हैं और न लेते हैं।”
ठाकरसे अपने काते हुए सूतों से बने कपड़े ही पहनते हैं। वे खादी और ग्रामोद्योग आयोग में मार्केटिंग डायरेक्टर भी रह चुके हैं। वे याद करते हैं कि किस तरह वे 1904 में गांधीवादी विचारधारा की लेखिका उषा मेहता के परचों को लोगों में वितरित करते थे। ब्रिटिश विरोधी परचे बाँटने के ज़ुर्म में उन्हें छह महीने की सज़ा भी हुई थी। लेकिन आज की तारीख़ में वे सिर्फ अपनी कल्पना के अनुरूप जीवन से संघर्ष करते हैं उन्होंने बताया “राष्ट्रवाद धीमी मौत की तरह समाप्त हो रहा है। आज के राजनेता सिर्फ़ कुर्सी और सत्ता पाने के लिए ही आतुर रहते हैं।” देश की हालत से वे काफ़ी दुखी हैं लेकिन आठ साल की उनकी पोती यशस्वी जब उनके पास चरखा कातना सीखने के लिए रोज़ाना आधा घंटा बैठती है तो उन्हें थोड़ा सुकून मिलता है। वे हँसते हुए बताते हैं—“मेरी पोतों यह सीखने के लिए काफ़ी उत्सुक है।”
- पुस्तक : अभिवक्ति और माध्यम (पृष्ठ 67)
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
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