रामविलास शर्मा के पत्र केदारनाथ के नाम
ramavilas sharma ke patr kedaranath ke naam
रामविलास शर्मा
Ramvilas Sharma
रामविलास शर्मा के पत्र केदारनाथ के नाम
ramavilas sharma ke patr kedaranath ke naam
Ramvilas Sharma
रामविलास शर्मा
और अधिकरामविलास शर्मा
(1)
58, नारियल वालीगलीलखनऊ,
21-7-35
प्रिय भाई केदार,
तुम्हारा कार्ड मिला। यथावकाश निराला जी को लेकर पं. शुकदेवबिहारी जी मिश्र के यहाँ कल सायंकाल गया था। निराला जी के लिखाए लेख पर उन्होंने हस्ताक्षर कर दिए हैं। पहले वाक्य पर उन्होंने आपत्ति की थी कि उनका आपसे कोई व्यक्तिगत परिचय न था। अस्तु, वह सब ठीक हो गया। किस जगह तुम कोशिश कर रहे हो? आशा है, इससे तुम्हारा काम चल जाएगा, साथ में भेज रहा हूँ।
और अपने विषय में लिखना हम सब लोग अच्छी तरह हैं।
तुम्हारा रामविलास शर्मा
(2)
112, Maqboolganj
Lucknow
13-8-35
प्रिय भाई केदार,
तुम्हारा कार्ड मिला। कानपुर में रहकर अपना ख़र्च चलाने के साधन क्या तुम्हें कुछ मिले हैं? तुमने अपनी पुस्तक की भूमिका लिखने के लिए मुझे लिखा था या निराला जी को। इस समय तुम्हारा वह कार्ड पास नहीं। मेरे लिखने के विषय में तो पूछना अनावश्यक है। कहोगे तो लिख ही दूँगा किंतु इससे तुम हास्यास्पद तो न बनोगे? तुम्हारी पुस्तक कहाँ से छप रही है, क्या Terms तय हुए हैं, in detail लिखो। ता. 7 को हम निराला जी के यहाँ से उठ आए हैं, ऊपर के पते पर। निराला जी अभी वहीँ हैं। अपने हालचाल और लिखना। कोई कविता नई लिखी हो तो भेजना—बस।
तुम्हारा रामविलास शर्मा
(3)
112, Maqboolganj
Lucnow
3-1-36
प्रिय मित्र केदार,
आज बहुत दिनों के संचित आलस्य को हठात् दूर कर तुम्हारा 15-11-35 का पत्र सामने रख तुम्हें उत्तर लिखने बैठा हूँ, अथवा एक नया पत्र लिखूँगा। तुम्हें पत्र लिखने का विचार सदा दिमाग़ में चक्कर मारा करता था, इसलिए तुम समझ सकते हो, इस देरी का कारण मेरी उदासीनता नहीं। प्रत्युत पत्र न लिखने से तुम्हारा मुझे सदा ही ध्यान रहा।
क्या नए वर्ष के लिए तुम्हें बधाई दूँ? पहले तो कुछ ऐसा दिखाई नहीं देता जो नया हो गया हो। ता. की सन् में अलबत्ता परिवर्तन हुआ है और लिखने में बहुधा पुराना सन् लिख जाता है। ठंड पहले की अपेक्षा कुछ अधिक ही पड़ने लगी है। दूसरे यह हमारे वर्ष का आरंभ नहीं। विद्यार्थियों का वर्ष तो जुलाई या अगस्त से ही शुरू होता है। अथवा हम हिंदुओं का चैत्र से जो बधाई देने के लिए अधिक उपयुक्त अवसर जान पड़ता है। फिर भी मैं समझता हूँ तुम नए उत्साह से नए प्रोग्राम बना कर काम करना नव वर्षारंभ के लिए न छोड़ते होंगे। यह तो प्रतिदिन प्रति सप्ताह, प्रति मास होना चाहिए।
तुम्हारा पत्र पूरा गद्य-काव्य है। लिखने के पूर्व संलाप, अंतस्तल, अंतर्नाद-आदि में से तो कुछ नहीं पढ़ा था? उसका बहुत-सा भाग Sentimental है—शब्द के निम्न अर्थ में। फिर भी उसके नीचे शायद तुम्हारा स्वच्छ हृदय देख सकता हूँ; तुमने लिखा है—'मैं तो स्वयं साफ़ हूँ।' ऐसा विश्वास दिलाने की चेष्टा न करो, किसी को भी। शब्दों में ऐसा कहने से किसी को विश्वास होगा भी, इसमें संदेह है। मित्रता करो, मुझसे नहीं, जिस किसी से भी हो सके। 'जिन खोजां तिन पाइयाँ' को चरितार्थ करने का एक ही ढंग है। अपने को थोड़ा-थोड़ा व्यक्त करते हुए, दूसरों को भी जानने की चेष्टा करो। ये दुनियादारी की बातें हैं, पर उस दिन विक्टोरिया पार्क की बातें स्मरण कर विश्वास होता है, उन्हें तुम पहले से ही जानते होगे। तुमने लिखा है—'न जाने कैसे तुम भी जीवन में समा गए।' —इस पर लिखा। मेरी अच्छाइयों को जानने के पहले धीरे-धीरे मेरी बुराइयों को पहले जान लो, जिससे बाद में उनका ज्ञान होने पर तुम मुझे अपने हृदय से सहसा निकाल न फेंको। सच जानो, एक मनचाहे मित्र की न जाने मुझे कब से कितनी आकांक्षा है, और उसके लिए यथाशक्ति चेष्टा की है। परंतु अभी तक वह साध जैसी की तैसी बनी है। तुम यदि उसे पूरी कर सके तो इससे अधिक सौभाग्य और क्या होगा?
बड़े दिन की छुट्टियों में घर चला गया था। दशहरे से मेरी मालकिन यहीं थीं—उन्हें छोड़ने गया था। तुमने अपनी सुखानुभूतियों का ज़िक्र न कर मुझे ललचा कर ही छोड़ दिया। यहाँ तुम जब चाहो आ सकते हो, स्वागत के लिए दरवाज़ा सदा खुला है। लालकुवें के पास मेरा मकान है। ऊपर पते वाला। कानपुर मैं स्वयं अभी तो नहीं भविष्य में शायद आ सकूँ, तो लिखूँगा। तुम क्या होस्टल में खोजने पर मिलोगे?
पत्र के साथ थोड़ी-सी कविता भेज दिया करो तो संतोष हो जाया करे। मैं उनका आरंभ किए देता हूँ—
गीत
देख रे क्षुद्र गान की तरी, आज निःसीम वेदना-भरी;
सिहर जड़ जग सागर में बही लहर पर लहर जहाँ उठ रही और सौ-सौ फन से फुफकार, साथ झंझा भी प्रलयंकरी।
अंध खोजती सिंधु का पार और गुरुतर होता गुरु भार कौन वह दूर देश अज्ञात, ज्ञान की परी जहाँ सुंदरी!
तुम्हारा रामविलास
(4)
112, Maqboolganj
Lucknow
12-2-36
प्रिय केदार,
देखो कितने बढ़िया पेपर पर तुम्हें पत्र लिख रहा हूँ। गुलाब के फूल के नीचे उसकी लाजभरी गुलाबी में मैंने तुम्हारा नाम लिखा है। पर तुम कहोगे, कितने दिनों बाद! वास्तव में प्रायः एक महीने बाद। तुम्हारे [तुम्हारा] 15-1-36 का पत्र सामने है। कारण यही, कभी उचित अवकाश न था, कभी टिकक [टिकट] को पैसे न थे। अब भी निब टेढ़ा ही है। पर अधिक विलंब उचित न था। पारकर फाउंटेन पेन से मोती से अक्षर चुनने के बजाए इस पेपर पर मेरा रेडिंक निब और नीले रंग का यह गोदना ही सही। वास्तव में सफ़ेद लिफ़ाफ़े रहे नहीं, इसलिए प्रिया को पत्र लिखने को दिए मित्र के तोहफ़े का प्रयोग तुम्हारे लिए।
तुम कहोगे, 'कितनी ही बातें बनाओ; पर/यहाँ असर नहीं होने का।। अब की वह फटकार लिखूँ....' वास्तव में मुझे कुछ-कुछ भय हो रहा है; इस बार नाराज़ हो न जाने क्या लिखो।
तुमने लिखा है—'जितना एक झलक में जाना जा सकता है, उतना ही जीवन भर में।' यह किन्हीं पुरुषों के लिए सत्य हो सकता है, उनमें से मैं नहीं। मैंने अपने स्टैंडर्ड से तुम्हें लिखा था। यदि तुम उनमें से हो तो गर्व की बात है।
मालकिन के एक और छोटा मालिक होने वाला है, इसी अप्रैल के अंत तक। घर की परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि इच्छा होने पर भी उन्हें अधिक दिनों तक पास नहीं रख सकता। इसीलिए कुछ सुख के दिन बिता फिर उसी पुराने ढर्रे में पड़ गया हूँ।
बुराई, बुराई से भी मिलती है, यह क्या तुम नहीं देखते। मुझे तो दुनिया में संगठित बुराई असंगठित अच्छाई को सताती देख पड़ती है।
मैं सबके पत्र हिफ़ाज़त से रखता हूँ। संपादकों के भी, जिनमें प्रायः सभी से मैं घृणा करता हूँ, पत्र मैं रख छोड़ता हूँ, जिससे मौक़ा पड़ने पर ठीक बदला ले सकूँ।
इसी तरह बुराइयाँ जानते जाओगे; पत्र तो देर में लिखा ही है। उस बुराई का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं। यदि एक झलक में मुझे पहचान गए हो, तो क्या बुराइयाँ छिपी रही होंगी।
जनवरी के अंत में किसी दिन मैं एक पड़ोसी की दाह-क्रिया में कानपुर गया था परंतु अवकाश न होने और साथ में होने के कारण गंगा के इसी ओर से लौट आया। एक कानपुर के सज्जन से जो यहाँ हैं और साथ गए थे, केवल यह पूछ सका कि डी० ए० वी० कॉलेज किस ओर है। उन्होंने पश्चिम की ओर उँगली उठाकर कहा, उधर बड़ी दूर। कुछ चिमनियों का धुआँ उधर आकाश को धुँधला कर रहा था। मैंने सोचा वहीं कहीं होस्टल के कमरे में शायद तुम लेटे कोई पुस्तक पढ़ रहे हो गे या किसी का ध्यान कर रहे होंगे।
तुमने लॉ किया है या एम० ए० किया है, मुझे कुछ स्मरण नहीं, लिखना। अनेक कठिनाइयाँ हैं, इधर आना संभव नहीं दिखाई देता। परंतु कभी आऊँगा अवश्य, यह आशा किया करता हूँ।
दिन रात में क्या-क्या करते हो, लिखना। प्रिया के ध्यान से पढ़ने में अधिक बाधा तो नहीं होती? तुम्हारे गीत का दूसरा बंद विशेष सुंदर लगा। क्या लिख सकता हूँ, पत्र का उत्तर जल्दी देना।
तुम्हारा ही रामविलास शर्मा
(5)
112, Maqboolganj
Lucknow
3-4-36
प्रिय मित्र बालेंदु*
आज इतने दिनों के बाद लिखने बैठा हूँ। शायद परीक्षा समाप्त होने पर तुम घर चले गए होंगे; मैं नहीं जानता, तुम्हें किस पते से यह पत्र भेजूँगा। तुम्हारा पत्र 9-3-36 का सामने है। रानी ने कैसा परीक्षाफल दिया? मालकिन ने पुत्र रत्न को जन्म दिया है।
माधुरी के मार्च-अप्रैल के अंकों में क्रमशः तुम्हारे लेख और कविता प्रकाशित हो चुके हैं। तुम्हें शायद मालूम हो। मैं माधुरी ऑफ़िस मुद्दतों से नहीं गया, न संपादकों के दर्शनों की इच्छा होती है। अपने आप तुम्हारी चीज़ें छप जाने से बड़ी प्रसन्नता का अनुभव हुआ, न जाने से जो Pricks of Conscience होते थे, उनसे पीछा छूटा।
निराला जी कुछ दिन अलाहाबाद रहे; उसके बाद मार्च के अंत में यहाँ आ गए, तब से यहीं हैं। उनका उपन्यास प्रभावती लखनऊ के सरस्वती पुस्तक भंडार से निकल चुका है। 'निरुपमा' दूसरा लिख रहे हैं; अलाहाबाद शायद लीडर प्रेस में छपेगा। वहीं से उनकी गीतिका भी।
मैं गर्मी की छुट्टियों में यहीं रहूँगा। जून के आरंभ में शायद कुछ दिन को घर जाऊँ।
शेष कुशल। अपने और घरवालों की हाल देना।
तुम्हारा लेख मुझे और अनेक मित्रों को यहाँ बहुत पसंद आया।
बस, तुम्हारा हीरामविलास शर्मा
(6)
112, मक़बूलगंज,लखनऊ
14-9-36
प्रिय मित्र,
तुम्हारा कृपा पत्र मिला। मैं इसे तुम्हारी कृपा ही समझता हूँ क्योंकि किसी पत्र की स्वयं मुझे आशा न थी। धैर्य से प्रतीक्षा करते मैंने भी लिखने का कष्ट न उठाया था। कानपुर तक तुम्हें मेरी कविता याद रही, धन्यवाद। सच तो यह है कि रोटियों और परवर की तरकारी का तुम्हारा स्मरण मुझे अधिक सुख देता है। दुर्भाग्य से आँखों के कष्ट के कारण अब एक महाराज रख लिया है, अब वे आनंद कहाँ?
परंतु अपनी स्मरण शक्ति का एक अद्भुत नमूना तुमने अपने पत्र में ही दिया है। तीसरे पेज में श्री बलदुवा का गीत उद्धृत करने की बात कह अपने लेखों की चर्चा छोड़ देते हो। चौथा पन्ना कोरा ही आया इसका अफ़सोस। श्रीमती होमवती का पत्र तुमने अनधिकार मेरे पास भेजा। वह भी चार लाइनों को छोड़ कोरा। पोस्ट ऑफ़िस को जो पैसे दिए जाएँ उनका पूरा उपयोग होना चाहिए।
मालूम होता है, तुम अपनी कविताएँ हमसे जल्दी छपवाओगे। आशीर्वाद देने के मैं योग्य नहीं। तब तक यहीं से उन्हें मेरा प्रणाम स्वीकार करो।
यह शायद तुम्हारा आख़िरी साल Law का है। सोच-समझकर Essay's लिखने पर तुलना। वैसे तो तुम्हारे इस कार्य से मुझे आनंद होगा ही। सलाह देने से बढ़िया मैं बहुत कम काम कर सकता हूँ, इसमें अपनी ज्ञान गरिमा का मधुर अनुभव होता है, साथ ही हल्दी फिटकरी भी नहीं लगती। सलाह जब लिखने के बजाए मुँह से दी जावे तब तो और भी आनंद।
'हिंदी काव्य की कोकिलाएँ' पुस्तक शायद तुमने देखी हो, न देखी हो तो कोशिश करके देख लेना। उसमें एकत्र पंचम स्वर सुन पड़ेंगे। चाँद की छः महीने की फ़ाइलें देखना अत्यंत लाभदायी होगा। तुम किस दृष्टिकोण से यह लेख लिखोगे, मैं नहीं जानता। मेरी समझ में उनके भावों का यथासंभव वैज्ञानिक विश्लेषण हो तो अच्छा। पर्दे के उठने से किसी के कोमल भावों ने सहसा करवट बदली है, तो कोई उन्हें डंके की चोट पर कहती आई है, किसी ने रहस्यवाद द्वारा अपनी भावुकता को प्रकट किया है, अनेकों [अनेक] ने घरेलू अनुभवों की बात कही है। दिनेशनंदिनी के गद्य गीत शायद देखे हों, प्रचंड जाग्रति [जागृति] है। सुधा में मीरा मित्रा के गीत विशेष Representative होते हैं। एक में लिखा था—
प्रियतम एक बार बतला दो
कब होगा तेरा सहवास!
कल 'उद्गार' मिली। ज़ोर से चिपकाने से तीन पैसे से बैरंग हो गई थी। इस पुस्तक में व्यक्तिगत दुःख का खुला उल्लेख है, उसके साथ सभी को संवेदना होगी। मुझे भी है। कवि अपनी कला द्वारा इन्हीं निजी बातों के ऊपर हावी हो जाता है। इसलिए दुखी आदमी को देख दया आती है। पर दुख की कविता पढ़ने पर आनंद भी आता है। यहाँ कुछ कविताओं को छोड़ वे इस दुःख के ऊपर नहीं उठ सकी हैं। ऐसी Sincere पुस्तक को काव्य आलोचना का विषय बनाना मुझे खटकता है, उसे तो Private circulation के लिए छपाना चाहिए था। परंतु लेखिका में प्रतिभा है और वह मार्जित हो अच्छी कृतियाँ दे सकती हैं, इसमें संदेह नहीं। मेरी समझ से उन्हें छंद ज्ञान के लिए कोई छोटी पुस्तक पढ़ लेनी चाहिए, छंदों का नाम याद रखने के लिए नहीं, वरन् जो लिखती हैं उसे ठीक लिखने के लिए। वही तब उनकी अधिक सांत्वना करेगा और आनंद भी देगा। कविता की पुस्तकें पढ़ें तो कुछ ही चुनी हुई—सुभद्राकुमारी का 'मुकुल', मैथिलीशरण का जयद्रथवध आदि। आज कल की कविताएँ पढ़ने से उनकी मौलिकता के लोप हो जाने का भय है। भाषा सुधारने के लिए गद्य की पुस्तकें भी पढ़ें। यह सब मैं इसलिए नहीं लिखता कि वे कवयित्री ही बनकर रहें या अन्य महत्त्वाकांक्षाएँ पालें; केवल इसलिए कि जो कार्य करती हैं, अधिक सुचारु ढंग से करें।
पृ० 2 पर 'परिचय' कविता मुझे सबसे अच्छी लगी। निर्दोष और सुंदर। 11—पर ऊषा की 'किरण क़लम' मुझे बड़ी अच्छी लगती है। 14—पर आँसुओं से घावों का धोना सुंदर भाव है। 17—पहेली का Burden बड़ा अच्छा आता है। 28—पर के दो बंद सुंदर हैं। 32—शायद इसी के लिए तुमने लिखा है—सुंदर से भी आगे-हृदय सिंध का मोती आँसू, नैन सीप से निकल गया। 36—पूजा की जून अच्छा मौलिक प्रयोग है। तुम चाहो तो यही बातें आलोचना में भी प्रकाशनार्थ लिख सकता हूँ।
6-10-36
29 सितंबर को निराला जी यहाँ आए। परसों अलहाबाद [इलाहाबाद] गए। वहीँ से बनारस जाएँगे। ‘गीतिका’ और ‘निरुपमा’ छप गई हैं। मैं परसों से सर्दी ज़ुकाम से अस्वस्थ हूँ। इस समय भी जी अच्छा नहीं है। इस पत्र को यहीं समाप्त कर, उत्तर आने पर फिर लिखूँगा।
तुम्हारारामविलास शर्मा
(7)
10-10-23
अभी तुम्हारा पत्र मिला। बड़ी ग्लानि हुई। बड़ा गधा हूँ। दिन-भर घर में रहता हूँ। शाम को 6 बजे बाहर निकलता हूँ। टिकट न होने से यह पत्र पड़ा रहा, यद्यपि रोज़ सबेरे उठकर टिकट लाने की प्रतिज्ञा करता था। आज सबेरे चौबे जब स्कूल गया तो उसने कहा—मैं आज जल्दी डेढ़ बजे आऊँगा और साईकिल पर जा पो. आ. से टिकट ला दूँगा। अगर वह न लाया तो मैं आज ज़रूर जाकर ले आऊँगा और यह पत्र तुम्हें कल ज़रूर मिल जाएगा। बस क्षमा करना। बीबी [बीवी] भी नाराज़ है। अधिक नाराज़गी न सह सकूँगा। निराला जी अलहाबाद हैं।
विलास
(8)
112, मक़बूलगंजलखनऊ
17-3-38
प्रिय केदार,
मैं कल्पना नहीं कर पा रहा, तुम मुझसे कितना नाराज़ होगे, मुझे कितनी गालियाँ सुनाई होंगी, मुझे कितना नीच समझा होगा....।
जब तुम्हारा पत्र आया था, मैं बीमार था....।
बीमारी से उठने पर मैं फिर Thesis में ऐसा जुट गया कि हर रोज़ याद कर भी तुम्हें पत्र लिखने के लिए दिमाग़ को ठंढा न कर सका। बीच में दो पत्रिकाएँ युनिवर्सिटी में देखने इलाहाबाद भी गया था। वहाँ नरेंद्र* से मिला और तुम्हारा ज़िक्र भी किया। कुछ झेंप-झेंप कर बोल रहा था; शमशेर से मिलना चाहा परंतु Mr. Dev, painter* के यहाँ देर होने से Leader Building* लौट आया और न मिल सका। इसका दुख है कि Hindu Boarding दो दफ़ा गया परंतु पहले से न मालूम होने से मिल न सका। यदि उन्हें पत्र लिखो तो लिख देना, मैं उनसे मिलने के लिए कितना उत्सुक था। बलदुआ* को पत्र लिखो तो लिख देना, मैं उनसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुआ था और उन्हें याद किया करता हूँ।
Thesis ख़त्मकर Sidhant* को दे दिया है। अब देख कर दे दें तो फिर आख़िरी बार छापूँ। क्या पत्र जल्दी दोगे?
तुम्हारारामविलास शर्मा
तुम्हारी कविताओं की नरेंद्र से ख़ूब तारीफ़ की थी, उसे ऐतबार ही न होता था!
रा० वि०
(9)
112, Maqboolganj
Lucknow
31-8-38
प्रिय केदार,
ज़रा साँस लेकर जल्दी ही मैं तुम्हें पत्र लिखने बैठा हूँ। दो महीने से समझो दौड़ में ही हूँ जिससे साँस लेने की फ़ुर्सत नहीं मिली। जुलाई में एक महीने का युनिवर्सिटी में पढ़ाने का काम मिला। उसके बाद ही छः महीने का फिर मिला। दोनों दफ़े अलग-अलग क्लासें पढ़ानी थीं। इसलिए Preparations आदि और कॉलेज के काम से व्यस्त हो जाता था। दूसरी बार तो ऐसा हुआ कि शाम को ख़बर लगी और दूसरे दिन से क्लास लेना पड़ा। इकदम से इसलिए बहुत काम करना पड़ा।
रूपाभ में कविताएँ देखी होंगी। तुम्हारी 'शारदीया' प्रकाश में आ गई। चकल्लस का भाभी अंक निकल गया। अंक-भाभी के ही साथ सार्थक है। देखा कि नहीं? निराला जी का 'देवर का इंद्रजाल' मज़ेदार है। उच्छृंखल का विज्ञापन भी निकल गया है। दिवाली तक मित्रों का विचार है निकालने का।
अपने हाल लिखो। ख़ूब नाराज़ हो गए होगे। इस आलस्य से इस समय इतनी आत्मग्लानि हो रही है कि लिख नहीं सकता बस, अंतिम बार क्षमा करना। कान पकड़ता हूँ, अब देर नहीं होगी। तुम्हारा पत्र बहुत सुंदर था। गद्य-काव्य। गद्य पर सुंदर आधिपत्य। बाद में ये पत्र प्रकाशित होने चाहिए। मुर्ग़ा भेजो।
रामविलास
(10)
112,
Maqboolganj
Lucknow
6-9-38
...आप भी क्या मौक़े से चिट्ठी लिखने बैठे थे जब जवाब आने ही वाला था। और आपकी समझदारी की क्या तारीफ़ करूँ। समझते हैं कि चिट्ठी पढ़ने की फ़ुर्सत भी न मिलेगी। जब कि दो दफ़े तो अभी ही उसे पढ़ गया हूँ....। तुम्हारे पत्रों में भला क्या रिसर्च करूँगा? जितने पुराने पड़ गए हैं, वह तक याद हैं। टेढ़े हर्फ़ो वाले* मसूरी में मिले, रेल की पटली की [के] किनारे के....।
पद्य न मिलने से तुम्हारे गद्य काव्य से ही संतोष, पर आगे ऐसी ग़ुस्ताखी न करना। तुम गद्य बहुत सुंदर लिखते हो, कुछ Discriptive Essays लिख रखो। जब प्रकाशन शुरू होगा तब धड़ल्ले से! इकदम से हिंदी संसार को सर पर उठा लेंगे (चाहे वह हमें पैरों के नीचे ही कुचलना चाहे)!....
चकल्लस भिजवाने का प्रबंध करूँगा। उसी में उच्छृंखल का विज्ञापन है, तुमने उसका नक्कारा न सुना हो तो आश्चर्य क्या जब भाभी अंक ही नहीं देखा। थीसिस ख़ुद छापने का दम नहीं, इसलिए एक साहब के मार्फ़त कुछ पैसा दे कर छापने के लिए दे रहा हूँ। वाक़ई, इस बला से आजिज़ आ गया हूँ....।
तुम्हें वकालत में दिलचस्पी है, यह सुन कर प्रसन्नता हुई। यहाँ तो युनिवर्सिटी जाना भी खलता है। आराम से लेटना, पढ़ना, लिखना, घूमना, सब पर प्रतिबंध लगा है। सोचता हूँ, क्या ऐसे ही जीवन गुज़ारना पड़ेगा.....
[रामविलास शर्मा]
(11)
112, Maqboolganj, Lucknow
8.11.38
डियर केदार—
तुम्हारा पोस्ट कार्ड मिला। उसका उत्तर लिख रहा हूँ जैसे आज ही मिला हो। नरोत्तम इलाहाबाद है, वहीं रहेगा। उसका पता 259, Shahganj है (या c/o Pathak Leader) लेख और कहानी उसी के पत्ते से भेज दो। उच्छृंखल नवंबर के अंत तक निकल जाएगा। 'देवताओं की आत्महत्या' थोड़ी इधर-उधर बदल कर दे दी है। आजकल D...d Thesis type कर रहा हूँ। इससे अभी इतना ही।
देर के लिए...
P. S. Send your things
soon to Nagarतु० रामविलास
(13)
259, Shahganj alld
[20.12.38]
भाई*,
पत्र मिला। शर्माजी आ गए हैं। आपकी कसर है। तुरंत चले आइए। पूरा उच्छृंखल मंडल जमा हो जाए।
शेष बातें मिलने पर
25 को ज़रूर।
तुम्हारानरोत्तम
(14)
दोस्त—
23 तक रहेंगे। यह तार पाते ही घर से कोर्ट से कर्वी से लीडर प्रेस इलाहाबाद चले आओ।
आज सबेरे यहाँ आया हूँ।
तुम्हारारामविलास
(15)
मसानीलाल भवन,सुंदरबाग़—लखनऊ
26-7-31
प्रिय केदार,
सब ठीक है। चिंता न करो। तुम्हारा पहला पत्र मिला तो सोच रहा था कि उत्तर लिखूँ कि नरोत्तम का पत्र आया कि वह यहाँ 21 को (शुक्रवार) आ रहा है। मैंने सोचा कि आ जाए तभी उत्तर लिखूँ। जब तक वह रहा, लिखने की फ़ुर्सत न मिली। कल जब चला गया, तब तुम्हारा दूसरा कार्ड मिला। मैंने तुम्हें शिवपुरी से एक पत्र लिखा था, सो मिला कि नहीं?
बापू अंक प्रेस की गड़बड़ी से नहीं निकला। उच्छृंखल मासिक के रूप में न हो [कर] अलग-अलग पुस्तकें बनकर निकलेगा। यानी प्रत्येक पुस्तक एक ही विषय पर। बापू अंक इस तरह दो भागों में निकलेगा। एक Study नरोत्तम ने लिखी है जो ख़ुद एक किताब हो जाएगी। पुस्तक की क़ीमत 1) होगी। 1) प्रवेश फीस देकर स्थायी ग्राहकों को ॥) में मिलेगी। सदा की भाँति इस स्कीम से भी नरोत्तम को बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं।
मैं एक साल के लिए युनिवर्सिटी में फिर काम कर रहा हूँ। 9 सितंबर को कुछ किताबों की आलोचना ब्राइडकास्ट करने का निमंत्रण मिला है। शायद अनामिका, युगवाणी, और प्रवासी के गीत पर बोलूँ।
तुम्हारी कुल कविताएँ कितनी हुईं? लिखते रहो 5-6 महीने में रुपया इकट्ठा कर छपाएँगे। कुछ नया लिखा हो तो भेजो।
कल पानी ख़ूब बरसा है। आनंद है।
तु० रामविलास
(16)
Telegram: ‘Chakallas’ Lucknow
CHAKALLAS
(Weekly Magazine)
The only exponent of the lighter vein in Hindi Journalism with distinction
GOOD HUMOUR IS THE
HEALTH OF THE SOUL
—STANISLAUS
Ref. your letter of 28-7-39
9 P.M.
Masani Lal Bhawan
Sunderbag, Lucknow
13-8-39—8 Ρ.Μ.
प्रिय केदार,
तुम्हारा पत्र मिला। यहाँ इस क़दर बादल थे कि पत्र ही न लिख सका। अब भी आसमान में छाए ही रहते हैं। शमशेर का पत्र आया था और उसने इलाहाबाद के बारे में भी यही लिखा था।
शायद अपना पत्र ख़ुद पढ़ो तो अब आश्चर्य करो। आख़िर इतना रंज-ओ-ग़म सिर्फ़ इसलिए कि उच्छृंखल बंद हो गया और वह भी केवल मासिक पत्र के रूप में। नागर का पत्र आया है कि सितंबर में वह तीन किताबों का सेट निकाल रहा है। क़ीमत 1) होगी फी किताब १) दे कर मुस्तकिल ग्राहक बनने वालों को फी किताब ॥) [आठ आना] में पड़ेगी। मैं समझता था कविता तुम मेरे लिए लिखते हो। पब्लिसिटी का कोई साधन न होने पर ये पत्र तो हैं, इनमें तो लिखा करोगे लेकिन मालूम होता है कि पत्रों में भी तुम्हारा गद्य काव्य समाप्त हो गया। इस पत्र में तुमने वह छायावादी वेदना प्रकट की है कि महादेवी वर्मा भी मात हो जाएँ। वाह मर्दे, तेरा लिखना न लिखना अगर एक मासिक पत्र के निकलने न निकलने पर निर्भर है तो तेरा न लिखना ही अच्छा। मेरी ख़ुद की बहुत सी स्कीमें हैं लेकिन अभी नहीं बताऊँगा। ज़रा तुम्हारा मूड ठीक हो जाए।
अमृत के यहाँ बैठा हूँ। हज़रत हैं नहीं नौकर से कमरा खुलवा लिया है। पास पढ़ीस जी भी हैं। गोमती की तरफ़ से ऐसी बढ़िया हवा आ रही है कि कुछ गंभीर लिखना नाममुमकिन मालूम होता है। मैंने एक भी कविता नहीं लिखी। प्रेमचंद पर 2 अध्याय लिखे हैं। आजकल खाने कसरत करने और सोने के सिवा और कुछ अच्छा नहीं लगता।
तुमने जो कुछ लिखा हो ज़रूर भेजो। तुम्हारा 'चंदगहना' मालवीय जी (मेरे मित्र) को बेहद पसंद है। कविता का ज़िक्र छिड़ते ही वह उसका नाम लेते हैं। बुरी तरह उनके दिल में तुमने घर कर लिया है।
मोटे से नहीं मिल सका। आओ तो लखनऊ। बीबी [बीवी] से ही मिलने के बहाने आओ।
तुम्हारा रामविलास शर्मा
आपका [आपकी] चंदगहना मुझे भी बेहद पसंद है। यहाँ तक कि मैंने 'रूपाभ' में जो कुछ छपा था वह भी देखा।
—पढ़ीस*
(17)
मसानीलाल भवन, सुंदरबाग़, लखनऊ
[सितंबर 1939]
प्रिय केदार,
ऐसा लगता है जैसे अभी कल ही तुम्हारा कार्ड आया है और मैं उसका जवाब लिखने बैठा हूँ। उस पत्र में तुम्हारे हाथ की लिखी तारीख़ देखी तो अचंभे में पड़ गया। न जाने कब से कल-कल करते आज सबेरे लिखने बैठा हूँ।
सबेरे उठ कर घूमने जाता हूँ। उसके बाद एक घंटा अख़बार पढ़ता हूँ। उसके बाद थोड़ी देर तक कुछ अपना पढ़ना, उसके बाद कॉलेज का काम। 8 बजे उठकर—कसरत—नहाना—खाना—सवा दस बजे कॉलेज। ढाई बजे आकर खाना। कुछ पढ़ना बच्चों को पढ़ाना। फिर सोना। सोकर आध घंटे पढ़ना—घूमना—रात को प्रेमचंद वाली किताब लिखना। आज कल जीवन की बैलगाड़ी इसी गति से चल रही है।
निराला जी साहित्य सम्मेलन में साहित्य परिषद् के सभापति हुए हैं। मुझसे भी वहाँ चलकर एक पेपर पढ़ने को कहा है। नरोत्तम भी वहाँ रहेगा। अमृत भी जाएगा। तुम भी आओ तो अच्छा रहे। मैंने सोचा है 'हिंदी साहित्य और राजनीति' पर बोला जाए—हिंदुस्तानी राजनीति की कमज़ोरियाँ, क्या साहित्य उससे सहानुभूति रख सकता है? और हि० राजनीति के घातक प्रभाव से अपनी रक्षा कर साहित्य ने राजनीतिज्ञों के चलने के लिए एक स्वतंत्र और आत्म-सम्मान युक्त मार्ग छोड़ दिया है।
कविताएँ ज़रूर भेजो। जितनी भी लिखी हैं। आजकल अमृत का कुछ हाथ माधुरी में है। हो सका तो एक आध दिसंबर के अंक में जा सकेंगी। नवंबर के अंक से 'हमारे नए साहित्यिक' एक सीरीज़ अमृत शुरू कर रहा है। पहला लेख मैंने 'बलभद्र दीक्षित' पर लिख कर दिया है। सितंबर वाली में प्रेमचंद पर एक लेख मेरा निकला है। तुम कोई Humorous sketch या लेख माधुरी के लिए भेजो। पैसा भी दिलाएँगे। Sex को खुले रूप में avoid करते हुए। कुछ कुछ जैसे 'अमरूद' था। Reflective-reminis—cent-local colouring लेता हुआ। जैसे अक्सर तुम्हारे पत्र होते हैं। उत्तर जल्दी देना।
तु० रामविलास
(18)
112, Maqboolganj
Lucknow
18-10-39
प्रिय श्री केदार दोस्त,
तुम्हारी चिट्ठी मिली। न लिख सकने योग्य रहने पर भी लिखवाने के लिए, लिखने वाले को भी धन्यवाद। थीसिस में फँसा रहने से जल्दी जवाब न दे सका। उम्मीद है दिसंबर के अंत तक सब ख़त्म हो जाएगा। उधर झाँसी आऊँगा और तुम्हें देखने भी। केन देखने की बड़ी इच्छा है। निराला जी मेरे उस मकान में रहते हैं, जिसमें तुम मुझसे मिले थे; मैं पास के दूसरे मकान में। बीवी-बच्चों के साथ। चौबे मज़े में हैं।
तु०रामविलास
- पुस्तक : मित्र संवाद
- रचनाकार : रामविलास शर्मा
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