काल महासिल साहु का
kal mahasil sahu ka
काल महासिल साहु का सिर पर पहुँचा आय॥
सिर पर पहुँचा आय उजुर कछु एकौ नाहीं।
पहुँचा धै अगुआय लिहे धरि मारत जाही॥
मार परे भा चेत लगा तब करन बिचारा।
मूरख के परसंग बैठि कै बात बिगारा॥
चलै न एकौ जोर बहाना काको लेवै।
नहीं ब्याज नहिं मूर साहु को का लै देवै॥
पलटू वादा टरि गया पूँजी गई वराय।
काल महासिल साहु का सिर पर पहुँचा आय॥
प्रकृति रूपी साहू की तहसीलदार मृत्यु है, वह आकर सिर पर पहुँच गई। उसके सामने कोई बहाना, प्रार्थना चलने वाला नहीं है। मौत आ पहुँची और प्राणी को पकड़ लिया और आगे मारते हुए ले चली। जब मौत की मार पड़ी, चलने का समय आया, तब मनुष्य को होश और पश्चाताप हुआ और विचार करने लगा कि मैं जीवनपर्यंत मूल के बीच में बैठकर अपना कल्याण करने का समय व्यर्थ खो दिया। अब समय बीत गया है। मौत से अपना ज़ोर चलने वाला नहीं है। बहाना भी किसका लिया जाए। मूल धन ही नहीं बचा है, तो ब्याज कैसे दिया जाय—विवेक ही खो गया, तो कल्याण कहाँ से हो? अब प्रसन्नतापूर्वक प्रकृति को शरीर कैसे लौटाया जाय? पलटू साहेब कहते हैं कि मूल पूंजी खो जाने से ब्याज सहित धन लौटाने की प्रतिज्ञा टल गई—विवेक द्वारा आत्मकल्याण करके प्रसन्नता पूर्वक प्रकृति को शरीर लौटने की बात खटाई में पड़ गई। प्रकृति का तहसीलदार सिपाही काल सिर पर आ धमका।
- पुस्तक : पलटू साहेब की बानी (पृष्ठ 47)
- संपादक : अभिलाषा दास
- रचनाकार : पलटू
- प्रकाशन : कबीर आश्रम, कबीर नगर, इलाहाबाद
- संस्करण : 2012
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