वर्षा-काल-वर्णन (रामचंद्रिका)
varshaa-kaala-var.nan (raamacha.ndrikaa)
चद मंद दुति वासर देखौ। भूमहीन भुवपाल विशेषौ॥
मित्र देखिये मोभत है यौं राजसाज बिनु सीतहि हौं ज्यौं॥
मंद मंद धुनि सों घन गाजें। तूर तार जनु आवझ बाजै॥
ठौर ठौर चपला चमकै यों। इंद्र-लोक-तिय नाचति हैं ज्यों॥
सोहैं घन स्यामत घोर घने। मोहैं तिनमें बक पांति भनैं॥
संखावलि पी बहुधा जल स्यों। मानों तिनको उगिलै बकस्यों॥
शोभा अति शक्र शरासन में। नाना दुति दीसति है घन मे।
रत्नावलि सी दिविद्वार भनो। वर्षागम बाँधिय देव मनो॥
घन घोर घने दसहू दिस छाये। मघवा जनु सूरज पै चढ़ि आये॥
अपराध बिना छिति के तन ताये। तिन पीड़न पीड़ित ह्वै उठि धाये॥
अति घातज बाजत दुंदुभि मानो। निरघात सबै पबिपात बखानो।
धनु है यह गौरमदाइन नाहीं। सरजाल बहै जलधार बृथाहीं॥
भट चातक दादुर मोर न बोले। चपला चमकै न फिरै खँग खोले॥
दुतिवंतन को विपदा बहु कीन्ही। धरनी कह चन्द्रवधू धरि दीन्हीं॥
तरुनी यह अत्रि शृषीश्वर की सी। उर में सद चन्द्रप्रभा सम नीसी॥
बरषा न सुनौ किलकै कल काली। सब जानत हैं महिमा अहिमाली॥
भौहें सुरचाप चारु प्रमुदित पयोधर, भूखन जराय जोति तड़ित रलाई है।
दूरि करी सुख मुख सुखमा ससी की नैन, अमल कमलदल दलित निकाई है।
केसोदास प्रबल करेनुका गमन हर, मुकुत सुहंसक-सबद सुखदाई है।
अबर बलित मति मोहै नीलकंठ जू की कालिका कि वरषा हरषि हिय आई है॥
अभिसारि निसी समझौ परनारी। सत मारगमेटन की अधिकारी॥
मति लोभ महामद मोह छई है। द्विजराज सुमित्र प्रदोषमई है॥
बरनत केशव सकल कवि विषम गाढ़ तम सृष्टि।
कुपुरुष सेवा ज्यों भई सन्तत मिथ्या दृष्टि॥
कलहंस कलानिधि खंजन कंज कछू दिन केशव देखि जिये।
गति आनन लोचन पायन के अनुरूपक से मन मानि किये॥
यहि काल कराल ते शोधि सबै हठि के बरषा मिस दूर किये।
अबधौं बिनु प्राण प्रिया रहि हैं कहि कौन हितू अवलंबि हिये॥
रात्रि में (शुक्ल पक्ष में भी) चंद्रमा मंदद्युति रहता है, दिन भी प्रकाशवान नहीं होता। ये दोनों ठीक वैसे ही तेजहीन हैं जैसे राज्य-हीन राजा। सूर्य भी ऐसा मंद द्युति दिख पड़ता है जैसे राज्यहीन और बिना सीता के मैं हूँ।
मद मंद ध्वनि से बादल गरजते हैं। उनका शब्द ऐसा मालूम होता है मानो तुरही, मंजीरा और ताशे बजते हों। जगह-जगह पर बिजली चमकती है, वह ऐसी मालूम होती है मानो इंद्रपुरी की अप्सराएँ नाच रही हों।
घोर काले बादल सोहते हैं, उनमें उड़ती हुई बक-पंक्तियाँ मन को मोहती है। यह घटना ऐसी लगती है मानो बादल समुद्र से जल पीते समय जल के साथ बहुत से शंख भी पी गए थे और अब वे ही शंख बलपूर्वक उगल रहे हैं।
इंद्र धनुष अति शोभा दे रहा है, बादलों में नाना प्रकार के रंग दिखाई पड़ रहे हैं। ऐसा जान पड़ता है मानो वर्षा के स्वागत में देवताओं ने सुरपुर के द्वार पर रत्नों की झालर बाँधी हो।
सब ओर घने बादल छाए हुए है, मानों इंद्र ने सूर्य पर चढ़ाई की है। इसका कारण यह है कि सूर्य ने बिना अपराध ही पृथ्वी को संतप्त किया है। अत: पृथ्वी के दुःख से संतप्त होकर सूर्य को दंड देने के लिए इंद्र देव उठ दौड़े हैं।
बादल अति ज़ोर से गरज रहे हैं। वही मानो रण-नगाड़े बज रहे हैं और बिजली की कड़क को वज्र फेंकने की ध्वनि जानो। यह इंद्रधनुष नहीं हैं वरन् इसे सुरपति का चाँप समझो और जो बूँदें पड़ती हैं यह बाण-वर्षा है, इसे जलधार कहना व्यर्थ है।
ये पपीहा मेढक और मोर नहीं बोल रहे, वरन् इंद्र के भट सूर्य को ललकार रहे हैं। यह बिजली नहीं चमक रही है, वरन् महाराज तलवार खोले घूम रहे हैं और समस्त द्युतिमान चमकीले ग्रहों पर विपति डाल दी है, यहाँ तक कि चंद्रवधुओं को पकड़ कर पृथ्वी के हवाले कर दिया है।
यह वर्षा अत्रि-पत्नी अनसूया सी है, क्योंकि जैसे अनुसया के गर्भ में सोम की प्रभा थी वैसे ही इस वर्षा में भी बादलों में चन्द्रप्रभा छिपी है (जैसे सोम नामक पुत्र के गर्भ में आने से अनसूया के तन में मंद प्रभा प्रकाशित हुई थी वैसे ही वर्षा में बादलों से ढंका चंद्रमा मंद प्रकाश देता है)। यह वर्षा काल के शब्द नहीं हैं, वरन् काली सुमधुर ध्वनि में हँस रही है जैसे काली की समस्त महिमा महादेव जी जानते हैं वैसे ही वर्षा शब्द की समस्त महिमा सर्प समूह ही जानता है (वर्षा में सर्पों को दादुर झिल्ली इत्यादि जंतु अधिकता से खाने को मिलते हैं, अतः वर्षा की महिमा सर्प ही भली भाँति जानते हैं)।
इंद्रधनुष ही जिसकी सुंदर भौंहे है, घने और बड़े बादल ही जिसके उन्नत कुच हैं, बिज्जुछटा ही जिसके जड़ाऊ जेवरों की चमक है, जिसने अपने मुख से सहज ही में चंद्रमा के मुख की शोभा दूर कर दी है। (वर्षा में चंद्रमा मंदज्योति रहता है), जिसके निर्मल नेत्रों से कमल की पंखड़ियां शोभा-दलित हो गई है। केशवदास कहते हैं कि जिसने कालिका ने मतवाली हथिनियों की चाल छीन ली है (वर्षा में हाथियों की यात्रा भी बंद रहती है), जिसके बिलुआओं का स्वच्छंद छंद सुखदाई है, नीलाम्बर से युक्त हो कर मानो नीलकंठ महादेव (वर्षा से मयूरगण) की मति को मोहित करती है वही कालिका देवी है या यह वर्षा है।
इस वर्षा से बनी हुई बड़ी-बड़ी नालियाँ परकीयाभिसारिका सी हैं। जैसे वे परकीया स्त्रियाँ स्वधर्म-मार्ग को मिटाती हैं, वैसे ही इस वर्षा में बड़ी-बड़ी नालियों ने अच्छे मार्गों के मिटाने का अधिकार पाया है (वर्षा के जलप्रवाह से रास्ते बिगड़ गए हैं)। अथवा यह वर्षा किसी पापी मनुष्य की लोभ, मद इत्यादि से युक्त बुद्धि है, क्योंकि जैसे पापी की लोभ, मोहादि ग्रसित बुद्धि सज्जन और भले मित्रों का बड़ा दोष करती है, वैसे ही यह वर्षा चंद्रमा और चमकीले सूर्य को अधकार में छिपाए रहती है।
केशव कहते हैं कि वर्षा में ऐसे सघन अंधकार की उत्पत्ति होती है कि रात-दिन कुछ दिखाई नहीं पड़ता। जैसे बुरे मनुष्य की सेवा से कोई आशा फलीभूत नहीं होती।
- पुस्तक : केशव कौमुदी (पृष्ठ 204)
- संपादक : लाला भगवानदीन
- रचनाकार : केशवदास
- प्रकाशन : राम नारायण लाल, इलाहाबाद
- संस्करण : 1947
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