भारत-भारती / अतीत खंड / कला-कौशल
kala kaushal
अब लुप्त-सी जो हो गईं रक्षित न रहने से यहाँ,
सोचो, तनिक कौशल्य की इतनी कलाएँ थी कहाँ?
लिपि-बद्ध चौंसठ नाम उनके आज भी हैं दीखते,
दश-चार विद्या-विज्ञ होकर हम जिन्हें थे सीखते॥
हाँ, शिल्प-विद्या वृद्धि में तो थी यहाँ यों अति हुई-
होकर महाभारत इसी से देश की दुर्गति हुई!
मय-कृत भवन में यदि सुयोधन थल न जल को जानता-
तो पांडवों के हास्य पर यों शत्रुता क्यों ठानता?
प्रस्तर-विनिर्मित पुर यहाँ थे और दुर्ग बड़े-बड़े,
अब भी हमारे शिल्प गुण के चिह्न कुछ-कुछ हैं खड़े।
भू-गर्भ से जब तब निकलती वस्तुएँ ऐसी यहाँ-
जो पूछ उठती हैं कि ऐसी थी हुई उन्नति कहाँ?
वह सिंधु-सेतु बचा अभी तक, दक्षिणी मंदिर बचे?
कब और किसने, विश्व में, यों शिल्प-चित्र कहाँ रचे?
वह उच्च यमुनास्तंभ लोहस्तंभ-युक्त निहार लो,
प्राचीन भारत की कला-कौशल्य-सिद्धि विचार लो॥
बहु अभ्रभेदी स्तूप अब भी उच्च होकर कह रहे-
संसार के किस शिल्प ने जल-पात इतने हैं सहे?
शत-शत गुहाएँ साथ ही गुंजार करके कह रहीं-
प्राचीन ही वा शिल्प इतना कौन है? कोई नहीं॥
हैं जो यवन राजत्व के वे कीर्ति चिह्न बढ़े-चढ़े,
वे भी अधिकतर हैं हमारे शिल्पियों के ही गढ़े।
अन्यत्र भी तो है यवन-कुल की विपुल कारीगरी,
है किंतु भारत के सदृश क्या वह मनोहरता भरी?
निज चित्रकारी के विषय में क्या कहें, क्या क्रम रहा;
प्रत्यक्ष है या चित्र है, यों दर्शकों को भ्रम रहा।
इतिहास, काव्य, पुराण, नाटक, ग्रंथ जितने दीखते,
सब से विदित है, चित्र-रचना थे यहाँ सब सीखते॥
होती न यदि वह चित्र विद्या आदि से इस देश में-
तो धैर्य धरते किस तरह प्रेमी विरह के क्लेश में?
अब तक मिलेगा सूक्ष्म वर्णन चित्र के प्रति भाग का,
साहित्य में भी चित्र-दर्शन हेतु है अनुराग का॥
थी चित्रकार यहाँ स्त्रियाँ भी चित्ररेखा-सी कभी,
संलग्न कुशल नायक हमारे नाटकों में हैं सभी।
लिखते कहीं दुष्यंत हैं भोली प्रिया की छवि भली,
करती कहीं प्रिय-चित्र-रचना प्रेम से रत्नावली॥
अब चित्रशालाएँ हमारी नाम शेष हुई यहाँ,
पर आज भी आदर्श उनके हैं अनेक जहाँ-तहाँ।
अब भी अजेंटा की गुफाएँ चित्त को हैं मोहती;
निज दर्शकों के धन्य रव से गूँज कर हैं सोहती॥
होता न मूर्ति-विधान यदि साधन हमारे देश का,
पूजन न षोडश-विधि यहाँ होता सगुण सर्वेश का।
अनुभव न होता एक सीमा में असीमाधार का,
होता निदर्शन भी न उस हृदयस्थ रूपोद्गार का॥
निज रूप से भी दूसरे जन जिस समय अज्ञान थे-
हम उस समय प्रभु-मूर्ति का प्रत्यक्ष करते ध्यान थे।
ऐसा न करते तो भला हम भक्ति प्रकटाते कहाँ?
दर्शन-विलंबाकुल दृगों को हाय! ले जाते कहाँ?
अब तक पुराने खँडहरों में, मंदिरों में भी कहीं,
बहु मूर्तियाँ अपनी कला का पूर्ण परिचय दे रहीं।
प्रकटा रही हैं भग्न भी सौंदर्य की परिपुष्टता,
दिखला रही हैं साथ ही दुष्कर्मियों की दुष्टता॥
लोकोक्ति है 'गाना तथा रोना किसे आता नहीं',
पर गान जो शास्त्रीय है उत्पत्ति उसकी है यहीं।
आकर भयंकर भाव जिस संगीत में अब हैं भरे,
हरि को रिझा कर हम उसी से साम गान किया करे॥
आती सु-चेतनता जिन्हें सुन कर जड़ों में भी अहो!
आई कहाँ से गान में वे राग-रागिनियाँ कहो?
हैं सब हमारी ही कलाएँ ललित और मनोहरी,
थी कौतुकों में भी हमारे ऐंद्रजालिकता भरी॥
अभिनय कला के सूत्रधर भी आदि से ही आर्य्य हैं-
प्रकटे भरत मुनि से यहाँ इस शास्त्र के आचार्य्य हैं।
संसार में अब भी हमारी है अपूर्ण शकुंतला,
है अन्य नाटक कौन उसका साम्य कर सकता भला॥
- पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 44)
- रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
- संस्करण : 1984
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