स्याम-सगाई
syaama-sagaa.ii
इक दिन राधे कुंवरि, स्याम-घर खेलनि आई;
चंचल और विचित्र देखि, जसुमति मन भाई।
नंद महरि ने तब कह्यो, देखि रूप की रास;
इहि कन्या मैं स्याम को गोविंद पुजवैं आस।
कि जोरी सोहती॥
जसुमति महाप्रवीन, एक द्विज-नारि बुलाई;
लीनी निकट बिठाय, मरम की बात सुनाई।
जाय कहौ बृषभानु सों, करियो बहु मनुहारि;
इहि कन्या मैं स्याम कों, मांगौ गोद-पसारि।
कि जोरी सोहनी॥
द्विज-नारी उठि चली, पौर बरसानैं आई;
जहं राधे की माय, बैठि तहं बात चलाई।
जसुमति रानी नंद की, हौं पठई तुम पास;
बहुत भांति बंदन कही, बहुतहिं करि अरदास।
कृपा कर दीजियै॥
नीकी राधे कुंवरि, स्याम इत मेरौ नीकौ;
तुम्ह किरपा करि करौ, लाल मेरे कौं टीकौ।
सब भांतिन सों होइगी, हम-तुम बाढ़ प्रीति;
और न कछु मन में चहौं, यही जगत की रीति।
परसपर कीजिये॥
रानी उत्तर दयौ, सु हौं नहिं करौं सगाई;
सूधी राधे कुंवरि, स्याम है अति चरबाई।
नंद ढोटा लंगर महा, दधि माखन कौ चोर;
कहति, सुनति, लज्जा नहीं, करति और ही और।
कि लरिका अचपलों॥
जसुमति लालहिं कहति, लाल! हों नाकैं आई;
जहं करियतु तो बात, तहां तेरि होति बुराई।
मैं पठई बृषभानु कैं, करनि सगाई तोय;
तिनहूं उहि उत्तर दियौ, बाढ़ी चिंता मोय॥
कहो कैसी करौं॥
मैया तैं मुसकाइ कहत यौं नंद-दुलारौ;
नाहिंन करिहौं ब्याउ, करौ जिनि लाड़ हमारौ।
जो तुम्हरैं इच्छा यही, उनहीं की हम लैंइ,
तो में ढोटा नंद कौं (जो) पांइन परि परि दैंइ।
सोच नहिं कीजिये॥
मोर चंद्रिका धारि, सुनटवर भेष बनाई;
बरसांने के बागहिं, मोहन बैठे जाई।
सब सखियन के झुंड में, देखति चली गुपाल;
अरस परस दोऊ भाये, कुंवरि किसोरी, लाल।
मनहिं फूलै फिरैं॥
मन हरि लीनो स्याम, परी राधे मुरझाई;
भई सिथिल सब देह, बात कछु कही न जाई।
दौरि सखी! कुंजन चलीं, नैननि डारति नीर;
अरी बीर! कछु जतन करि, हिरदै धरति न धीर।
हर्यो मन मोहना॥
सखियन ऊंचे बैन कहे, पै कुंवरि न बोलै;
पूंछति बिबिध प्रकार, लड़ैती नैन न खोले।
बड़ी बेरु बीती जबै, तब सुधि आई नैकु;
स्याम स्याम रटिबे लगी, एकुहि बेर जु व्हैंकु।
बदति ज्यों बावरी॥
सखी कहैं सुनि कुंवरि! तोइ इक जतन बताऊं;
चुप रहिकै सुनि लेहु उठौ अब घर लै जाऊं,
कहियो काटी नाग नैं, जौ पूंछै तो माइ;
हम हैं मीत गुपाल को, लैंहैं तुरत बुलाइ॥
कहैंगी पीर बहु॥
कर गहि लई उठाइ, पकरि गृह भीतरि लाई;
बिबस दसा लखि माइ, दौरि कै कंठ लगाई।
कहा भयो मों कुंवरि कौ, तनक समुझाई;
हौं बरजति ही लाडिली, दूरि खेलनि जिनि जाइ।
कह्यौ मानैं नहीं॥
गई घरी द्वै बीति, कुंवरि जब नैन उघारे;
लै लै बड़े उसास, डसी मैया मोहिं कारे।
नाग डसी मैया सुनत, गिरी धरनि मुरझाइ,
बार-बार यौं भांखही, कोउ जलदी करौ उपाइ।
अरे! कोउ दौरियो॥
सखी कहति समुझाइ, कहौ तौं गोकुल जाऊं;
मनमोहन घनस्याम, तुरत वाकौं ले आऊं।
वह ढोटा अति सोहनों, पठवै वाकी माइ;
बडौ गारुड़ी नंद कौ, तुरत भली करि जाइ।
बड़ौ ही चतुर है॥
अरी बीर! चलि जाउ, कहौ इहि बिनती मेरी;
जो जीवैगी कुंवरि, बीर मैं, करिहौं तेरी।
बेगि पठै नंदलाल कौं, जीउदान दै मोहि;
पांय लगौं, बिनती करौं, जग जस आवै तोहि।
रावरी सरन हौं॥
एकु चली, द्वै चार चलीं, गोकुल में आईं;
जसुमति बैठि जहां बैठि तहं बात चलाईं।
पांय लगौ कीरति कह्यो, तुम जसुमति किन लेउ;
जो तुम्हरी इच्छा यही, तो कुंवर संग करि देउ।
सगाई लीजियो॥
जसुमति-मन आनंद, दौरि नंदलाल बुलाए;
सुनि मैया की टेर, चले मनमोहन आए।
लखि गुपाल झगरनि लगे, मैया सों मुसक्याइ;
ए तो नारि गंवारि हैं, मति बहिकैं तू माइ।
ठगनि आई यहां॥
सुनो नंद के लाल! सांवरे कुंवर कन्हाई;
बरसांनो वह ग्राम, जहां तुम मुरलि बजाई।
नटवर भेष बनाइ कैं, बैठे आसन मारि;
धुनि सुनि मोही राधिका, औ ब्रज सिगरी नारि।
मनौं टौंना कर्यो॥
अहो महरि के पूत! सांवरे कुंवर कन्हाई;
जो न चलौगे बेगि, कुंवरि जीवन की नाईं।
काली नाग जु नाथियो, तुम सों और न कोई;
वृंदावन में सांवरे, कहा सिखावत मोई।
बात जानति सबै॥
जो मांगौ सो लेउ, सांवरे कुंवर कन्हैया;
बिनु मांगे ही देहि तुम्हें राधा की मैया।
इहि सुनि सुंदर सांवरे! लीने सखा बुलाइ;
सिंध पौरि बृषभानु की, तत्छिन पहुंचे जाइ।
लगन है नेह की॥
तब रानी उठि दौरि, पौरि तें मोहन ल्याई;
सिंघासन बैठाइ, हाथ गहि कुंवरि दिखाई।
दरस फूंक दै विष हरयो, निज सनमुख बैठाइ;
बहु बिधि वारति ए सखी! मुदित कुंबरि की माइ।
धन्न है इहि घरी॥
सुनति बचन तत्काल, लड़ैती नैनि उघारे;
निरखति ही घनस्याम, बदन तें केस संवारे।
सब अपने ढिग निरखि कै पुनि निरखी ढिग माइ;
अचरा डार्यौ बदन पैं मधुर-मधुर मुसिकाइ।
सकुच मन में बढ़ी॥
देखि दोउन कौ प्रेम जु, कीरति मन मुसिकाई;
जोरी जुग जुग जियौ, विधाता भली बनाई।
सखी कहैं जुरि बिप्र सों पुहुपन तैं बनमाल;
राधे के कर छाइकैं गर मेलौ नंदलाल॥
बात अच्छी बनी॥
सुनति सगाई स्याम, ग्वाल सब अंगनि फूले;
नाचत गावत चले, प्रेम रस में अनुकूले।
जसुमति रानी घर सज्यौ मोतिन चौक पुराइ;
बजति बधाई नंद के नंददास बलि जाई।
कि जोरी सोहनी॥
- पुस्तक : अष्टछाप कवि : नंददास (पृष्ठ 83)
- संपादक : सरला चौधरी
- रचनाकार : नंददास
- प्रकाशन : प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार
- संस्करण : 2006
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