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भारत-भारती / वर्तमान खंड / व्यापार

vyaapaar

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

भारत-भारती / वर्तमान खंड / व्यापार

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    इस रत्नगर्भा भूमि पर हा दैव ऐसी दीनता,

    है शोच्य कृषि से कम नहीं व्यापार की भी हीनता।

    जिस देश के वाणिज्य की सर्वत्र धूम मची रही—

    क्या पर मुखापेक्षी नहीं है आज पद-पद पर वही?

    अब रख नहीं सकते स्वयं हम लाज भी अपनी अहो!

    रखते विदेशी वस्त्र उसको, सभ्य हैं हम, क्यों हो!

    करती अपेक्षा अपनी पूर्ण जो जितनी जहाँ—

    वह जाति उतनी ही समुन्नति प्राप्त करती है वहाँ॥

    जो वस्तु देखो,'मेडइन' इँगलैंड, इटली, जर्मनी,

    जापान, फ्रांस, अमेरिका वा अन्य देशों की बनी।

    होकर सजीव मनुष्य हम निर्जीव से हैं हो रहे,

    घर में लगा कर आग अपने बेखबर हैं सो रहे!

    कुल-नारियाँ जिनको हमारी हैं करों में धारतीं—

    सौभाग्य का शुभ-चिह्न जिनको हैं सदैव विचारतीं।

    वे चूड़ियाँ तक हैं विदेशी देख लो, बस हो चुका;

    भारत स्वकीय सुहाग भी परकीय करके खो चुका!

    वे तुच्छ सुइयाँ भी विदेशी जो हमको मिल सकें—

    तो फिर पहनने के हमारे वस्त्र भी क्या सिल सकें?

    माचिस विदेशी जो लें तो हम अँधेरे में रहें,

    हैं क्षुद्र छड़ियों तक विदेशी और आगे क्या कहें?

    केवल विदेशी वस्तु ही क्यों, अब स्वदेशी है कहाँ?

    वह वेष-भूषा और भाषा, सब विदेशी है यहाँ!

    गुण मात्र छोड़ विदेशियों के हम उन्हीं में सन गए,

    कैसी नकल की,वाह! हम नक्काल पूरे बन गए!

    गर्दभ बना था सिंह उसकी खाल को पाकर कभी,

    पर सिंह के से गुण कहाँ? हँसने लगे उसको सभी।

    इस माँति के नरपुंगवों को क्या यहाँ बढ़ती नहीं?

    पर हाय! काले भाल पर लाली कभी चढ़ती नहीं॥

    संप्रति स्वदेशी की हमें है गंध भी भाती नहीं,

    खस, केवड़ा, बेला, चमेली चित्त में आती नहीं।

    मस्तक 'लेवेंडर' बिना अब मस्त होता है अहो!

    बस शौक़ पूरा हो हमारा, देश ऊजड़ क्यों हो!

    सब स्वाभिमान डुबा चुके जो पूर्व-पारावार में—

    आश्चर्य है, हम आज भी हैं जी रहे संसार में;

    किंवा इसे जीना कहें तो फिर कहें मरना किसे?

    जीता कहाँ है वह नहीं है ध्यान कुछ अपना जिसे!

    आती विदेशों से यहाँ सब वस्तुएँ व्यवहार की,

    धन-धान्य जाता है यहाँ से, यह दशा व्यापार की!

    कैसे फैले दीनता, कैसे हम भूखों मरे?

    ऐसी दशा में देश की भगवान ही रक्षा करें॥

    जिस वस्तु को हम दूसरों को बेचते हैं 'एक' में,

    लेते उसी को 'बीस' में हैं डूब कर अविवेक में!

    जो देश कच्चा माल ही उत्पन्न करके शांत है,

    उसका पतन एकांत है, सिद्धांत यह निर्भ्रान्त है॥

    रालीब्रदर इत्यादि को हम बेचते जो माल हैं,

    लेते वही पंद्रह गुने तक मूल्य में तत्काल हैं!

    आता विलायत से यहाँ वह माल नाना रूप में,

    आश्चर्य क्या फिर हम पड़े हैं जो अँधेरे कूप में॥

    हम दूसरों को पाँच सौ की बेचते हैं जब रुई,

    सानंद कहते हैं कि हमको आय क्या अच्छी हुई।

    पर दूसरे कहते कि ठहरो, वस्त्र जब हम लाएँगे—

    तब और पैंतालीस सौ लेकर तुम्हीं से जाएँगे॥

    हा! आप आगे दौड़ कर हम दीनता को ले रहे,

    लेकर खिलौने काँच आदिक अन्न-धन हैं दे रहे!

    आवश्यकीय पदार्थ अपने यदि बनाते हम यहीं,

    जो हानि होकर ये हमारी दुर्दशा होती नहीं॥

    लेकर विदेशी टीन हम सानंद चाँदी दे रहे,

    देकर तथा सोना निरंतर है गिलट हम ले रहे।

    हम काँच लेकर दूसरों को दे रहे हीरे खरे,

    निज रक्त के बदले महोदक ले रहे हैं हा हरे!

    क्या इस पुरातन देश में था समय ऐसा भी कभी—

    अपनी प्रयोजन-पूर्ति जय करते स्वयं थे हम सभी?

    हाँ, यह होता तो कभी का नाश हो जाता यहाँ,

    इसका अभी तक चिह्न भी क्या दृष्टि में आता यहाँ॥

    जो दिव्य दर्शन शास्त्र की विख्यात है जन्मस्थली,

    पहले जहाँ पर अंकुरित हो सभ्यता फूली-फली।

    संगीत, कविता, शिल्प की जननी वही भारत मही,

    होगी किसे स्पर्धा कहे जो पर मुखापेक्षी रही!

    इतिहास में इस देश की वाणिज्य वृद्धि प्रसिद्ध है,

    अन्यान्य देशों से वहाँ संबंध इसका सिद्ध है।

    बन कर यहाँ हर वस्तुएँ सर्वत्र ही जाती रहीं,

    नर-रचित कहलाती थीं, सुर-रचितर कहलाती रहीं॥

    हिंदू-कला-कौशल्य पर संसार मुग्ध बना रहा,

    जग में बिना संकोच सबने अद्वितीय उसे कहा।

    'हारूँ रशीद' तथा प्रतापी 'शार्लमेंगन' की सभा,

    है हो चुकी विस्मित निरख कर भारतीय-पट-प्रभा॥

    सब वस्तुएँ उपहार के ही योग्य बनती थीं यहाँ,

    संसार में होती उन्हीं की माँग थी देखो जहाँ।

    तब तो अतुल वैभव रहा, त्रुटि थी कोई आय में;

    सच है कि रमती है रमा वाणिज्य में, व्यवसाय में॥

    है आज कश्मीरे विदेशी नाम पर जिनके चले,

    बनते दुशाले हाय! थे काश्मीर में कैसे भले!

    है विदित बंगाली किनारी धोतियों की आज भी,

    पर है विदेशी आज वह, आती हमको लाज भी!

    ढाके,चँदेरी आदि की कारीगरी अब है कहाँ?

    हा! आज हिंदू-नारियों की कुशलता सब है कहाँ?

    थी वह कला या क्या, कि ऐसी सूक्ष्म थी, अनमोल थी,

    सौ हाथ लंबे सूत की बस आध रत्ती तोल थी॥

    रखा नली में बाँस को जो थान कपड़े का नया,

    आश्चर्य अंबारी सहित हाथी उसी से ढक गया।

    ये वस्त्र कितने सूक्ष्म थे, कर लो कई जिनकी तहें—

    शहज़ादियों के अंग फिर भी झलकते जिनमें रहें!

    थे मुग्ध वस्त्रों पर हमारे अन्य देशी सर्वथा,

    यूरोप के ही साहबों को हम सुनाते हैं कथा।

    वे लोग वस्त्रों को यहाँ के थे सदैव सराहते,

    निज देश के पट मुफ़्त में भी थे लेना चाहते॥

    जिस भाँति भारतवर्ष का व्यापार नष्ट किया गया,

    कर से तथा प्रतिरोध से जिस भाँति भ्रष्ट किया गया।

    वर्णन वृथा है उस विषय का, सोचना अब है यही—

    किस भाँति उसकी वृद्धि हो, जैसे कि पहले थी रही॥

    यदि हम विदेशी माल से मुँह मोड़ सकते हैं नहीं—

    तो हाय! उसका मोह भी क्या छोड़ सकते हैं नहीं?

    क्या बंधुओं के हित तनिक भी त्याग कर सकते नहीं?

    निज देश पर क्या अल्प भी अनुराग कर सकते नहीं?

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 102)
    • रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
    • संस्करण : 1984
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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