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भारत-भारती / अतीत खंड / अवनति का आरंभ

awanti ka arambh

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

भारत-भारती / अतीत खंड / अवनति का आरंभ

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    इस भाँति जब जग में हमारी पूर्ण उन्नति हो चुकी,

    पाया जहाँ तक पथ वहाँ तक प्रगति की गति हो चुकी।

    तब और क्या होता? हमारे चक्र नीचे को फिरे,

    जैसे उठे थे, अंत में हम ठीक वैसे ही गिरे!

    उत्थान के पीछे पतन संभव सदा है सर्वथा,

    प्रौढ़त्व के पीछे स्वयं वृद्धत्व होता है यथा॥

    हा! किंतु अवनति भी हमारी है समुन्नति-सी बड़ी,

    जैसी बढ़ी थी पूर्णिमा वैसी अमावस्या पड़ी!

    पैदा हुआ अभिमान पहले चित्त में निज शक्ति का,

    जिससे रुका वह स्रोत सत्वर शील, श्रद्धा, भक्ति का।

    अविनीतता बढ़ने लगी, अनुदारता आने लगी;

    पर-बुद्धि जागी, प्रीति भागी, कुमति बल पाने लगी॥

    फिर स्वार्थ ईर्ष्या-द्वेष का विष-बीज जो बोने लगा,

    दुर्भावना के वारि से उग वह बड़ा होने लगा।

    वे फूट के फल अंत में यों फूल कर फलने लगे-

    खाकर जिन्हें, जीते हुए ही, हम यहाँ जलने लगे॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 68)
    • रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
    • संस्करण : 1984

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