(दोहा)
राम लखन बन में फिरें, सिय खोजन की टेक।
खोज खोज में मिल गयी, भक्त भीलनी एक॥
(छंद)
आते हुए देखे जहाँ, बालक युगल सुंदर महा।
आनंद से उमगी हुई, आसन लगी ढूँढन अहा!
लायी कहीं से टाट का टुकड़ा पुराना अति फटा।
अति प्रेम से उसको बिछाया, मोद की उर में घटा॥
श्रीराम, लछमन प्रेम से झट बैठ आसन पर गये।
सौभाग्य अपना जान कर दृग भीलनी के भर गये।
आसन नहीं था वह हृदय था भीलनी का रस भरा।
स्वीकार सच्चे पारखी ने है उसे तब ही करा॥
आतिथ्य करना भूलकर वह दखने उनको लगी।
मानो चकोरी चंद्रमा-युग देखती सुख में पगी।
अति भक्ति से श्रीराम-चरणों में झुकी शबरी जभी।
जन्मांतरों के पाप मानो क्षय हुए उसके तभी॥
राघव-पदों से सिर न अपना वह उठाना चाहती।
वह पा चुकी सर्वस्व, मानो कुछ न पाना चाहती।
यह देखकर उसकी दशा भर नेत्र राघव के गये।
ज्यों ओसकण से पूर्ण मानो हो गये पकंज नये॥
(दोहा)
लख शबरी का प्रेम यों, लक्ष्मण दौलित मौन।
चेतन को जड़वत् किया, धन्य! प्रेमकी पौन॥
चरणों से उसको उठा, फिर यों बोले राम।
मैं तुझसे संतुष्ट हूँ, सभी भाँति हे बाम॥
(छंद)
फिर ध्यान शबरी को हुआ आतिथ्य मैंने क्या किया?
जलपान करवाया न कुछ संकोच से पूरित हिया!
भीतर गयी तत्काल लायी बेर झोली में भरे।
ये बेर कुछ तो लाल मीठे और कुछ खट्टे हरे॥
प्रभु के निकट-सी बैठकर वह भीलनी भोली भली।
देने लगी वर बेर चुन-चुन प्रेम अमृत की डली।
भिलनी खिलाने लग गयी, भगवान खाने लग गये।
इस भोग से भव-रोग सारे भीलनी के भग गये॥
खट्टा कहीं श्रीराम-मुख में बेर एक चला गया।
वह बेर अपना रंग मीठा और ही लाया नया।
वह प्रेम-पगली बेर फिर चख-चख उन्हें देने लगी।
इस प्रेम-वर्षा से अहा! श्रीराम को भेने लगी॥
लेती प्रथम चख बेर मीठा, राम को देती तभी।
‘लछमन!’ रसीले बेर यह’ भगवान् यों कहते जभी॥
अति स्वाद से खाते हुए करते बड़ाई जा रहे!
भिलनी तुम्हारे बेर ये मीठे हमें हैं भा रहे॥
(दोहा)
लायी हो किस ठौर से, इतने मीठे बेर।
किस रस सें बौरे इन्हें, रस का इनमें ढेर॥
गद्गद भिलनी हो गयी, सुनकर मधुरे बोल।
लगी झूलने भीलनी, चढ़ी प्रेम की दोल॥
(सवैया)
हे रघुनाथ! न मीठे हैं बेर ये, मीठो तुम्हारो ही चित्त है भारी।
हाथ के छूए न बेर मेरे कोऊ— चाखै, जो जानि ले जाति हमारी।
ओछी ते ओछी है भील की जाति, औ तापर नारी मैं नीच गँवारी।
माँगि के खात सराहत जात ये, पूर्व के पुण्य की मेरी है बारी॥
दर्शन हेतु तजैं धन धाम, औ जोग कमाय समाधि लगावैं।
धूप औ शीत सहैं सिर ऊपर, तो भी न ये शुभ दर्शन पावैं।
भाग्य जगे मम आज अचानक, दासी के द्वार पै चालि के आवैं।
भोगन के ठुकरावन वारे ये, बेरन खातिर हाथ बढ़ावैं॥
दाख औ माखन जो घर होते तो, आज खिलाय निकासती जी की।
चूर के देती मैं चूरमो चोखो पै, जोर नहीं घर आँगुरी घी की।
मान के राखन खातिर मानी है, रंकिनि की मिजमानी ये नीकी।
बेरन सों मिजमानी की बात रहेगी सदा ये बनी भिलनी की॥
हे रघुनाथ! तुम्हारो दयालु, स्वभाव सुन्यो जस वैसो हि पायो।
याही दयालु स्वभाव के कारण तीनहुँ लोकन में यश छायो।
बारहिँ बार जो बेरन माँगन को इतिहास नयो ये बनायो।
कौनहू भौन समाये न ये यश— पौन रखैगी सदा अपनायो॥
(दोहा)
सुनकर विनती वाम की, हँसकर बोले राम।
क्यों इतनी सकुचा रही, बेरों पर हे बाम!
(छंद)
मेरे लिये संसार में कोई पदार्थ बुरा नहीं।
अभिमान में जो है भरा सबसे बुरा बस है वही।
सत्प्रेम-श्रद्धा से दिया विष भी मुझे तो पेय है।
मम भक्त का अर्पित मुझे कोई पर्दार्थ न हेय है॥
मुझको सरस है वस्तु वह जिसमें हृदय होवे भरा।
मैं देखता खट्टा न मीठा और सूखा भी हरा।
जूठे खिलाये बेर क्या, मम चित्त तूने हर लिया।
माता सदृश तू हो गयी सुत-भाव जो मुझ पर किया॥
यह राम है तेरा, तुझे कोई न वस्तु अदेय है।
वर माँग इच्छित आज तू, मेरे लिये सब देय है।
सुन राम के मधुर वचन भिलनी न निज तन में रही।
अति स्नेह, श्रद्धा, प्रेम की त्रैधार में बेबस बही॥
‘है कौन-सी वह वस्तु जग की मूल्य रखती हो घना।
इन दर्शनों से, चित्त मेरा सुख-सुधा में है सना।
हे नाथ! यह विषमय मुझे, किस बात पर रीझे कहो?
मागूँ भला क्या आज मैं, पाया नहीं क्या कुछ अहो!
(दोहा)
कोटि जन्म नृप-पद मिले, उनके जितने भोग।
इस दर्शन पर वारिये, जो नाशक भव-रोग॥
भक्ति आपकी चित्त में, बनी रहे दिन रात।
भूलूँ एक न पल कभी, यह शुभ पद-जलजात॥
‘एवमस्तु’ श्रीरामने, कहा प्रेम के साथ।
बिदा हुए तत्काल वे, करके भिलनि सनाथ॥
- पुस्तक : भक्त-भारती (पृष्ठ 71)
- रचनाकार : तुलसीराम शर्मा 'दिनेश'
- प्रकाशन : घनश्यामदास, गीताप्रेस, गोरखपुर
- संस्करण : 1931
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