पुष्प-वाटिका प्रसंग (दो) : रामचरितमानस
pushpa-vaaTika prasa.ng (do) : raamachrit maanas
सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारी।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥
तात जनक तनया यह सोई। धनुष जग्व जेहि कारन होई॥
पूजन गौरि सखी लइ आई। करत प्रकास फिरइ फुलवाई॥
जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो सब कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभग अंग सुनु भ्राता॥
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मन कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहि सपनेहु पर नारि न हेरी॥
श्री राम हृदय में सीता की शोभा का वर्णन करके और अपनी दशा को विचारकर पवित्र मन से अपने छोटे भाई लक्ष्मण से कहने लगे−
हे तात! यह वही जनक की कन्या है, जिसके लिए धनुष-यज्ञ हो रहा है। सखियाँ पार्वती जी की पूजा के लिए इसे ले आई हैं। यह फुलवारी में प्रकाश करती हुई फिर रही है।
जिसका अलौकिक सौंदर्य देखकर स्वभाव ही से पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। उस सब कारण को विधाता ही जानते हैं किंतु हे भाई! सुनो, दाहिना अंग फड़क रहा है।
रघु के वंश वालों का यह सहज (वंशगत) स्वभाव होता है कि उनका मन कभी बुरे रास्ते पर पैर नहीं रखता। मुझे तो अपने मन का अत्यंत ही विश्वास है कि उसने स्वप्न में भी पराई स्त्री की इच्छा नहीं की।
- पुस्तक : श्री रामचरितमानस (पृष्ठ 148)
- रचनाकार : तुलसी
- प्रकाशन : लोकभारती
- संस्करण : 2017
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