भारत-भारती / अतीत खंड / प्राचीन भारत की एक झलक
prachin bharat ki ek jhalak
मैथिलीशरण गुप्त
Maithilisharan Gupt
भारत-भारती / अतीत खंड / प्राचीन भारत की एक झलक
prachin bharat ki ek jhalak
Maithilisharan Gupt
मैथिलीशरण गुप्त
और अधिकमैथिलीशरण गुप्त
समयावरण से पार करके ऐतिहासिक दृष्टि को,
जो देखते हैं आज भी हम पूर्णकालिक सृष्टि को।
तो दीखता है दृश्य ऐसा भारतीय-विकास का,
प्रतिबिंब एक सजीव है जो स्वर्ग या आकाश का॥
भारतभूमि
ब्राह्मो-स्वरूपा, जन्मदात्री, ज्ञान-गौरव-शालिनी,
प्रत्यक्ष लक्ष्मीरूपिणी, धन-धान्य-पूर्णा, पालिनी।
दुर्द्धर्ष रुद्राणो स्वरूपा शत्रु सृष्टि-लयंकरी,
वह भूमि भारतवर्ष की है भूरि भावों से भरी॥
वे ही नगर, वन, शैल, नदियाँ जो कि पहले थीं यहाँ,
है आज भी, पर आज वैसी जान पड़ती हैं कहाँ?
कारण कदाचित है यही, बदले स्वयं हम आज हैं,
अनुरूप ही अपनी दशा के दीखते सब साज हैं॥
भवन
चित्रित घनों से होड़ कर जो व्योम में फहरा रहे,
वे केतु उन्नत मंदिरों के किस तरह लहरा रहे!
इन मंदिरों में से अधिक अब भूमि-तल में दब गए,
अवशिष्ट ऐसे दीखते हैं-अब गए या तब गए!
जल-वायु
पीयूष सम पीकर जिसे होता प्रसन्न शरीर है,
आलस्य-नाशक, बल-विकाशक उस समय का नीर है।
है आज भी वह, किंतु अब पड़ता न पूर्व प्रभाव है,
यह कौन जाने नीर बदला या शरीर स्वभाव है?
उत्साहपूर्वक दे रहा जो स्वास्थ्य वा दीर्घायु है,
कैसे कहें, कैसा मनोरम उस समय का वायु है।
भगवान जानें, आज कल वह वायु चलता ही नहीं,
अथवा हमारे पास होकर वह निकलता ही नहीं?
प्रभात
क्या ही पुनीत प्रभात है, कैसी चमकती है मही;
अनुरागिणी ऊषा सभी को कर्म में रत कर रही।
यद्यपि जगाती है हमें भी देर तक प्रतिदिन वही,
पर हम अविध निद्रा-निकट सुनते कहाँ उसकी कही?
गंगादि नदियों के किनारे भीड़ छवि पाने लगी,
मिल कर जल ध्वनि में गल ध्वनि अमृत बरसाने लगी।
सरवर इधर श्रुति-मंत्र लहरी, उधर जल-लहरी अहा!
तिस पर उमंगों की तरंगें, स्वर्ग में अब क्या रहा॥
दान
सुस्नान के पीछे यथाक्रम दान की बारी हुई,
सर्वस्व तक के त्याग की सानंद तैयारी हुई!
दानी बहुत हैं किंतु याचक अल्प हैं उस काल में,
ऐसा नहीं जैसी कि अब प्रतिकूलता है हाल में॥
दिनकर द्विजों से अर्ध्य पाकर उठ चला आकाश में,
अति शोभित हो उठी स्वर्ण-वर्ण-प्रकाश में।
वह आंतरिक आलोक इस आलोक में ही मिल गया,
रवि का मुकुट धारण किया, स्वाधीन भारत खिल गया॥
गोपालन
जो अन्य धात्री के सदृश सबको पिलाती दुग्ध है,
(है जो अमृत इस लोक का, जिस पर अमर भी मुग्ध हैं।)
वे धेनुएँ प्रत्येक ग्रह में हैं दुही जाने लगीं,
या शक्ति की नदियाँ वहाँ सर्वत्र लहराने लगीं॥
घृत आदि के आधिक्य से बल-वीर्य्य का सु-विकास है,
क्या आजकल का-सा कहीं भी व्याधियों का वास है?
है उस समय गो-वंश पलता, इस समय मरता वही!
क्या एक हो सकती कभी यह और वह भारत मही॥
होमाग्नि
निर्मल पवन जिसकी शिखा को तनिक चंचल कर उठी,
होमाग्नि जल कर द्विज-गृहों में पुण्य-परिमल भर उठी।
प्राची दिशा के साथ भारतभूमि जगमग जग उठी,
आलस्य में उत्साह की-सी आग देखो, लग उठी॥
देवालय
नर-नारियों का मंदिरों में आगमन होने लगा,
दर्शन, श्रवण, कीर्तन, मनन से मग्न मन होने लगा।
ले ईश-चरणामृत मुदित राजा-प्रजा अति चाव से,
कर्त्तव्य, दृढ़ता की विधा बनने लगी सम भाव से॥
श्रद्धा सहित किस भाँति हरि का पुण्य पूजन हो रहा,
वर वेद-मंत्रों में मनोहर कीर्ति-कूजन हो रहा।
अखिलेश की उस आर्तिहरिणी आरती को देख लो,
असमर्थ, मूक-समान, मुखरा भारती को देख लो॥
अतिथि सत्कार
अपने अतिथियों से वचन जाकर गृहस्थों ने कहे-
सम्मान्य! आप यहाँ निशा में कुशलपूर्वक तो रहे?
हमसे हुई हो चूक जो कृपया क्षमा कर दीजिए-
अनुचित न हो तो, आज भी, यह गेह पावन कीजिए”॥
पुरुष
पुरुष-प्रवर उस काल के कैसे सदाशय हैं अहा!
संसार को उनका सुयश कैसा समुज्वल कर रहा!
तन में अलौकिक कांति है, मन में महा सुख-शांति है;
देखो न, उनको देख कर होती सुरों की भ्रांति है!!!
मस्तिष्क उनका ज्ञान का विज्ञान का भांडार है,
है सूक्ष्म बुद्धि-विचार उनका, विपुल बल-विस्तार है।
नव नव कलाओं का कभी लोकार्थ आविष्कार है,
अध्यात्म तत्वों का कभी उद्धार और प्रचार है॥
स्त्रियाँ
पूजन किया पति का स्त्रियों ने, भक्ति-पूर्ण विधान से,
आँचल पसार, प्रणाम कर, फिर की विनय भगवान से
विश्वेश! हम अबला जनों के बल तुम्हीं हो सर्वदा,
पतिदेव में मति, गति तथा दृढ़ ही हमारी रति सदा”॥
हैं प्रीति और पवित्रता की मूर्ति-सी वे नारियाँ,
हैं गेह में वे शक्तिरूपा, देह में सुकुमारियाँ,
गृहिणी तथा मंत्री स्वपति की, शिक्षिता हैं वे सती,
ऐसी नहीं हैं वे कि जैसी आजकल की श्रीमती॥
घर का हिसाब-किताब सारा है उन्हीं के हाथ में,
व्यवहार उनके हैं दयामय सब किसी के साथ में।
वे पाक-शास्त्र-विशारदा हैं और वैद्यक-जानतीं,
सबको सदा संतुष्ट रखना धर्म्म अपना मानतीं॥
आलस्य में अवकाश को वे व्यर्थ ही खोती नहीं,
दिन क्या, निशा में भी कभी पति से प्रथम सोती नहीं।
सीना, पिरोना, चित्रकारी जानती हैं वे सभी-
संगीत भी, पर गीत गंदे वे नहीं गातीं कभी॥
संसार-यात्रा में स्वपति की वे अटल अश्रान्ति हैं,
हैं दुःख में वे धीरता, सुख में सदा वे शांति हैं।
शुभ सांत्वना हैं शोक में वे और ओषधि रोग में,
संयोग में संपत्ति हैं, बस है विपत्ति वियोग में॥
संतान
जब हैं स्त्रियाँ यों देवियाँ, संतान क्यों उत्तम न हो?
उन बालकों के सरल, सुंदर भाव तो देखो, अहो!
ऊषाऽगमन से जाग वे भी ईशगुण गाने लगे-
या कंज फूले देख बंदी भृंग उड़ जाने लगे!
हैं हृष्ट-पुष्ट शरीर से, माँ-बाप के वे प्राण हैं-
जो सर्वदा करते दृगों की भाँति उनका बाण हैं।
वे जायँ जब तक गुरुकुलों में, ज्ञान का घर है जहाँ-
तब तक उन्हें कुछ-कुछ पढ़ाती आप माताएँ यहाँ॥
है ठीक पुत्रों के सदृश ही पुत्रियों का मान भी,
क्या आज की-सी है दशा, जो हो न उनका ध्यान भी!
हैं उस समय के जन न अब से जो उन्हें समझ बला!
होंगे न दोनों नेत्र किसको एक से प्यारे भला?
देखो, अहा वे पुत्रियाँ हैं या विभव की वृद्धियाँ,
अवतीर्ण मानों हैं हुई प्रत्यक्ष उनके ऋद्धियाँ।
हा! अब उन्हीं के जन्म से हम डूबते हैं शोक में,
पर हो न उनका जन्म तो हों पुत्र कैसे लोक में?
तपोवन
मृग और सिंह तपोवनों में साथ हो फिरने लगे,
शुचि होम-धूम उठे कि सुंदर सुरभि-घन घिरने लगे!
ऋषि-मुनि मुदित मन से यथा-विधि हवन क्या करने लगे-
उपकार मूलक पुण्य के भांडार से भरने लगे॥
वे सौम्य ऋषि, मुनि आजकल के साधुओं जैसे नहीं;
कोई विषय जिनसे छिपा हो विज्ञ वे ऐसे नहीं।
हस्तामलक-जैसे उन्हें प्रत्यक्ष तीनों काल हैं,
शिवरूप हैं, तोड़े उन्होंने बंधनों के जाल हैं॥
वे ग्रंथ जो सर्वत्र ही गुरु मान से मंडित हुए-
पढ़ कर जिन्हें संसार के तत्त्वज्ञजन पंडित हुए।
जो आज भी थोड़े बहुत हैं नष्ट होने से बचे,
हैं वे उन्हीं तप के धनी ऋषि और मुनियों के रचे॥
कुशपाणि पाकर भी उन्हें डरता स्वयं वज्री सदा,
हैं तुच्छ उनके निकट यद्यपि उस सुरप की संपदा।
यद्यपि उटजवासी तदपि वह तत्त्व उनके पास है,
आकर अलेक्जेंडर-सदृश सम्राट बनता दास है!
गुरुकुल
विद्यार्थियों ने जागकर गुरुदेव का वंदन किया,
निज नित्यकृत्य समाप्त करके अध्ययन में मन दिया।
जिस ब्रह्मचर्य-व्रत बिना है आज हम सब रो रहे-
उसके सहित वे धीर होकर वीर भी हैं हो रहे॥
पाठ
आधार आर्यों के अटल जातीय-जीवन-प्राण का-
है पाठ कैसा हो रहा श्रुति, शास्त्र और पुराण का।
हे राम! हिंदू जाति का सब कुछ भले ही नष्ट हो,
पर यह सरस संगीत उसका फिर यहाँ सु-स्पष्ट हो॥
फ़ीस
पढ़ते सहस्रों शिष्य हैं पर फ़ीस ली जाती नहीं,
वह उच्च शिक्षा तुच्छ धन पर बेच दी जाती नहीं।
दे वस्त्र भोजन भी स्वयं कुलपति पढ़ाते हैं उन्हें,
बस, भक्ति से संतुष्ट हो दिन-दिन बढ़ाते हैं उन्हें॥
भिक्षा
वे ब्रह्मचारी जिस समय, गुरुदेव के आदेश से,
पहुँचे नहीं भिक्षार्थ पुर में, बालरूप महेश-से।
ले सात्त्विकी भिक्षा, प्रथम ही, गृहिणियाँ हर्षित बड़ीं-
करने लगीं उनकी प्रतीक्षा, द्वार पर हो कर खड़ीं॥
है आज कल की भाँति वह भिक्षा नहीं अपमान की,
है प्रार्थनीय गृही जनों को यह व्यवस्था दान की।
वे ब्रह्मचारी भिक्षुवर ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं-
भूपाल भी, पथ छोड़ कर, उन पर दिखाते भक्ति हैं॥
राजा
देखा, महीपति उस समय के हैं प्रजा-पालक सभी,
रहते हुए उनके किसी को कष्ट हो सकता कभी?
किस भाँति पावें कर, न यदि वे न्याय से शासन करें,
जो वे अनीति करें कहीं तो वेन की गति से मरें॥
अनिवार्यशिक्षा
हैं खोजने से भी कहीं द्विज मूर्ख मिल सकते नहीं,
अनिवार्य शिक्षा के नियम हैं जो कि हिल सकते नहीं।
यदि गाँव में द्विज एक भी विद्या न विधिपूर्वक पढ़े-
तो दंड दे उसको नृपति, फिर क्यों न यों शिक्षा बढ़े॥
है नित्य विप्रों के यहाँ बस, ज्ञान-चर्चा दीखती,
शुक-सारिकाएँ भी जहाँ शास्त्रार्थ करना सीखती।
कोई जगत को सत्य, कोई स्वप्न मात्र बता रहा,
कोई शकुनि उनमें वहाँ मध्यस्थ भाव जता रहा॥
चारित्र्य
देखो कि सबके साथ सबका निष्कपट बर्ताव है,
सबमें परस्पर दीख पड़ता प्रेम का सद्भाव है।
कैसे फले-फूल भला वे जो न हिल मिल कर रहे?
वे आर्य ही क्या, यदि कभी परिवाद निज मुख से कहें॥
ठग और चोर कहीं नहीं हैं धर्म का अति ध्यान है,
देखे न देखे और कोइ, देखता भगवान है।
सूना पड़ा हो माल कोई किंतु जा सकता नहीं
कोई प्रलोभन शांत मन को है भुला सकता नहीं॥
यदि झूठ कहने पर किसी का टिक रहा सर्वस्व भी,
तो भी कहेगा सत्य ही वह क्यों कि मरना है कभी।
पंचायतों में समय पर, दृष्टांत ऐसे दीखते,
हैं धर्म का सब पाठ मानों गर्भ में ही सीखते॥
हैं भाव सबके आननों पर ईश्वरीय प्रसाद के,
इस लोक में उनके हृदय आधार है प्रह्लाद के।
मरते नहीं वह मौत वे जो फिर उन्हें मरना पड़े,
करते नहीं वह काम उनको नाम जो धरना पड़े॥
बस, विश्वपति में नित्य सबकी वृत्तियाँ हैं लग रहीं,
अन्तःकरण में ज्ञानमणि की ज्योतियाँ हैं जग रहीं।
कर्तव्य का ही ध्यान उनको है सदा व्यवहार में,
वे 'पद्मपत्रमिवाम्भसा' रहते सुखी संसार में॥
- पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 55)
- रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
- संस्करण : 1984
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.