अखइ णिरामइ परमगइ मणु घल्लेप्पिणु मिल्लि।
तुट्टेसइ मा भंति करि आवागमणहं वेल्लि॥
एमइ अप्पा झाइयइ अविचलु चित्तु धरेवि।
सिद्धिमहापुरि जाइयइ अट्ठ वि कम्म हणेवि॥
अक्खरचडिया मसिमिलिया पाढंता गय खीण।
एक्क ण जाणी परम कला कहिं उग्गउ कहिं लीण॥
वे भंजेविणु एक्कु किउ मणहं ण चारिय विल्लि।
तहि गुरुवहि हउं सिस्सिणी अण्णहि करमि ण लल्लि॥
अग्गइं पच्छइं दहदिहहिं जहिं जोवउं तहिं सोइ।
ता महु फिट्टिय भंतडी अवसु ण पुच्छइ कोइ॥
जिम लोणु विलिज्जइ पाणियहं तिम जइ चितु विलिज्ज।
समरसि हूवइ जीवडा काइं समाहि करिज्ज॥
जइ इक्क हि पावीसि पय अंकय कोडि करीसु
णं अंगुलि पय पयडणइं जिम सव्वंग य सीसु (?)॥
तित्थइं तित्थ भमंतयहं संताविज्जइ देहु।
अप्पे अप्पा झाइयइं णिव्वाणं पउ देहु॥
जो पइं जोइउं जोइया तित्थइं तित्थ भमेइ।
सिउ पइं सिहुं हंहिंडियउ लहिवि ण सक्कु तोइ॥
मूढा जोवइ देवलइं लोयहिं जाइं कियाइं।
देह ण पिच्छइ अप्पणिय जहिं सिउ संतु ठियाइं॥
अक्षय निरामय परमगति में प्रवेश करके मन को छोड़ दे—ऐसा करने से तेरी आवागमन की बेल टूट जाएगी, इसमें संदेह न कर।
इस प्रकार चित्त को अविचल स्थिर करके आत्मा का ध्यान होता है तथा अष्टकर्म को नष्ट कर सिद्धिमहापुरी में गमन होता है।
स्याही से लिखे गए ग्रंथ पढ़ते-पढ़ते उम्र बिता दी। परंतु हे जीव! तू कहाँ उत्पन्न हुआ और कहाँ लीन होगा—इस एक परम कला को तूने न जाना।
जिन्होंने भेद मिटाकर अभेद किया और विषयकषायरूपी बेल के द्वारा मन की बेलि को चरने नहीं दिया—ऐसे गुरु की मैं शिष्या हूँ, अन्य किसी की लालसा
मैं नहीं करती।
आगे-पीछे, दशों दिशाओं में जहाँ मैं देखूँ, सर्वत्र वही है। अब मेरी भ्रान्ति मिट गई, अन्य किसी से पूछने की जरूरत ना रही।
जैसे लवण पानी में विलीन हो जाता है, वैसे चित चैतन्य में विलीन होने पर जीव समरसी हो जाता है। समाधि में इसके सिवाय और क्या करना हैं?
यदि एक बार भी उस चैतन्यदेव के पद को पाऊँ तो उसके साथ मैं अपूर्व क्रीड़ा करूँ। जैसे कोरे घड़े में पानी की बूँद सर्वत्र प्रवेश कर जाती है, वैसे मैं भी उसके सर्वांग में प्रवेश कर जाऊँ।
एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में भ्रमण करने वाला जीव मात्र देह का संताप करता है, आत्मा में आत्मा के ध्यान से निर्वाणपद की प्राप्ति होती है। अत: हे जीव! तू आत्मा को ध्याकर निर्वाण की ओर पैर बढ़ा।
हे योगी। जिस पद को देखने के लिये तू अनेक तीर्थों में भ्रमण करता फिरता है, वह शिवपद भी तेरे साथ ही साथ घूमता रहा, फिर भी तू उसे न पा सका!
मूर्ख जीव, लोगों के द्वारा बनाए गए देवल में देव को खोजता है, परंतु अपनी ही देह-देवल में जो शिवसंत विराजमान है, उसको नहीं देखता।
- पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 38)
- संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
- रचनाकार : मुनि राम सिंह
- प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
- संस्करण : 1992
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