णमिओ सि ताम जिणवर जाम ण मुणिओ सि देहमज्झम्मि।
जइ मुणिउ देहमज्झम्मि ता केण णवज्जए करस॥
ता संकप्पवियप्पा कम्मं अकुणंतु सुहासुहाजणयं।
अप्पसरूवासिद्धी जाम ण हियए परिफुरइ॥
गहिलउ गहिलउ जणु भणइ गहिलउ मं करि खोहु।
सिद्धिमहापुरि पइसरइ उप्पाडेविणु मोहु॥
अवधउ अक्खरु जं उप्पज्जइ
अणु वि किं पि अण्णाउ ण किज्जइ॥
आयिं चित्तिं लिहि मणु धारिवि।
सोउ णिचिंतउ पाय पसारिवि॥
किं बहुएँ अडवड वडिण देह ण अप्पा होइ।
देहहं भिण्णउ णाणमउ सो तुहुं अप्पा जोइ॥
पोत्था पढणिं मोक्खु कहं मणु वि असुदंधउ जासु।
बहुयारउ लुद्धउ णवइ मूलट्ठिउ हरिणासु॥
दयाविहीणउ धम्मडा णाणिय कह वि ण जोइ।
बहुएं सलिलविरोलियइं करु चोप्पडा ण होइ॥
भल्लाण वि णासंति गुण जहिं सहु सग खलेहिं।
वइसाणरु लोहहं मिलिउ पिट्टिज्जइ सुघणेहिं॥
हुयवहि णाइ ण सक्कियउ धवलतणु संखरस।
फिट्टीसइ मा भंति करि छुहु मिलिया स्वयररस॥
संखसमुद्दहिं मुक्कियए एही होइ अवत्थ।
जो दुव्वाहहं चुंबिया लाएविणु गलि हत्थ॥
हे जिनवर! जब तक मैंने देह में रहे हुए 'जिन' को न जाना, तब तक तुझे नमस्कार किया, परंतु जब देह में ही रहे हुए 'जिन' को जान लिया, तब फिर कौन किसको नमस्कार करे।
जीव को संकल्प-विकल्प तब तक रहता है जब तक कि शुभाशुभ कर्म का कर्ता होकर उसके अंतर में आत्मस्वरूप की सिद्धि स्फुरायमान न हो जावे।
हे जीव! लोग तुम्हें ‘हठीला हठीला' कहते हैं तो भले कहो, किंतु हे हठी! तू क्षोभ मत करना। तू मोह को उखाड़ कर सिद्धि-महापुरी में चले जाना।
लोग तुम्हें घेला-पागल कहें, तो इसी से तू क्षुब्ध नहीं होना। लोग कुछ भी कहें, तू तो मोह को उखाड़ कर महान सिद्धि नगरी में प्रवेश करना।
जीव हत्या न करो और दूसरों के साथ ज़रा भी अन्याय न होने दें, इतनी बात चित में लिख लो और मन में धारण कर लो—बस, फिर तुम निश्चिंत पाव पसार कर सोओ!
बहुत बड़बड़ाने से क्या? शरीर आत्मा नहीं हैं। देह से भिन्न जो ज्ञानमय है—वही आत्मा है। हे योगी! उसको तू देख।
मन ही जिसका अशुद्ध है, उसे पोथा पढ़ने से भी मोक्ष कैसा? वैसे तो हिरन को मारने वाला शिकारी भी हिरन के सामने नमता है।
जैसे पानी के विलोडने से हाथ चिकना नहीं होता, वैसे दया से रहित धर्म ज्ञानियों ने कहीं भी नहीं देखा।।
दुष्टों के संग से भले पुरुषों के गुण भी नष्ट हो जाते हैं—जैसे लोहे का संग करने से अग्निदेव भी बड़े-बड़े घनों से पिट जाते हैं।
अग्नि भी शंख के धवलत्व को नष्ट नहीं कर सकती, परंतु यदि वह स्वयं काई से मिल जाए तो उसका धवलत्व मिट जाता है, इसमें संदेह न कर।
- पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 32)
- संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
- रचनाकार : मुनि राम सिंह
- प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
- संस्करण : 1992
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