पल भर की उस चंचलता ने
खो दिया हृदय का स्वाधिकार!
श्रद्धा की अब मधुर निशा
फैलाती निष्फल अंधकार!
मनु को अब मृगया छोड़ नहीं
रह गया और था अधिक काम;
लग गया रक्त था उस मुख में
हिंसा-सुख लाली से ललाम।
हिंसा ही नहीं और भी कुछ
वह खोज रहा था मन अधीर।
अपने प्रभुत्व की सुख-सीमा
जो बढ़ती हो अवसाद चीर।
जो कुछ मनु के करतल-गत था
उसमें न रहा कुछ भी नवीन;
श्रद्धा का सरल विनोद नहीं
रुचता अब था बन रहा दीन।
उठती अंतस्तल से सदैव
दुर्ललित लालसा जो कि कांत;
वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो
दब जाती अपने आप शांत।
“निज उद्गम का मुख बंद किए
कब तक सोएँगे अलस प्राण;
जीवन की चिर चंचल पुकार
रोये कब तक, है कहाँ त्राण!
श्रद्धा का प्रणय और उसकी
आरंभिक सीधी अभिव्यक्ति;
जिसमें व्याकुल आलिंगन का
अस्तित्व न तो है कुशल सूक्ति।
भावनामयी वह स्फूर्ति नहीं
नव-नव स्मित रेखा में विलीन;
अनुरोध न तो उल्लास, नहीं
कुसुमोद्गम-सा कुछ भी नवीन!
आती है वाणी में न कभी
वह चाव-भरी लीला हिलोर,
जिसमें नूतनता नृत्यमयी
इठलाती हो चंचल मरोर।
जब देखो बैठी हुई वहीं
शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत!
या अन्न इकट्ठे करती है
होती न तनिक-सी कभी क्लांत।
बीजों का संग्रह और उधर
चलती है तकली भरी गीत;
सब कुछ लेकर बैठी है वह
मेरा अस्तित्व हुआ अतीत!”
लौटे थे मृगया से थक कर
दिखलाई पड़ता गुफा-द्वार;
पर और न आगे बढ़ने की
इच्छा होती, करते विचार!
मृग डाल दिया, फिर धनु को भी
मनु बैठ गए शिथिलित शरीर,
बिखरे थे सब उपकरण वहीं
आयुध, प्रत्यंचा, शृंग, तीर।
“पश्चिम की रागमयी संध्या
अब काली थी हो चली, किंतु
अब तक आए न अहेरी वे
क्या दूर ले गया चपल जंतु!”
यों सोच रही मन में अपने
हाथों में तकली रही घूम;
श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली
अलकें लेती थीं गुल्फ चूम।
केतकी गर्भ-सा पीला मुँह,
आँखों में आलस-भरा स्नेह;
कुछ कृशता नई लजीली थी
कंपित लतिका-सी लिए देह!
मातृत्व बोझ से झुके हुए
बँध रहे पयोधऱ पीन आज;
कोमल काले ऊनों की नव
पट्टिका बनाती रुचिर साज।
सोने की सिकता में मानो
कालिंदी बहती भर उसास;
स्वर्गंगा में इंदीवर की
या एक पंक्ति कर रही ह्रास!
कटि में लिपटा था नवल वसन
वैसा ही हलका बुना नील;
दुर्भर थी गर्भ मधुर पीड़ा
झेलती जिसे जननी सलील।
श्रम-बिंदु बना सा झलक रहा
भावी जननी का सरस गर्व;
बन कुसुम बिखरते थे भू पर
आया समीप था महा पर्व।
मनु ने देखा जब श्रद्धा का
वह सहज खेद से भरा रूप,
अपनी इच्छा का दृढ़ विरोध
जिसमें वे भाव नहीं अनूप।
वे कुछ भी बोले नहीं; रहे
चुप चाप देखते साधिकार;
श्रद्धा कुछ-कुछ मुस्कुरा उठी
ज्यों जान गई उनका विचार।
“दिन भर थे कहाँ भटकते तुम”
बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह
यह हिंसा इतनी है प्यारी
जो भुलवाती है देह-गेह!
मैं यहाँ अकेली देख रही
पथ, सुनती-सी पद-ध्वनि नितांत;
कानन में जब तुम दौड़ रहे
मृग के पीछे बन कर अशांत!
ढल गया दिवस पीला-पीला
तुम रक्तारुण बन रहे घूम;
देखो नीड़ों में विहग युगल
अपने शिशुओं को रहे चूम!
उनके घर में कोलाहल है
मेरा सूना है गुफा-द्वार!
तुमको क्या ऐसी कमी रही
जिसके हित जाते अन्य द्वार?”
“श्रद्धे! तुमको कुछ कमी नहीं
पर मैं तो देख रहा अभाव;
भूली-सी कोई मधुर वस्तु
जैसे कर देती विकल घाव।
चिर-मुक्त पुरुष वह कब इतने
अवरुद्ध श्वास लेगा निरीह!
गति-हीन पंगु-सा पड़ा-पड़ा
ढह कर जैसे बन रहा डीह।
जब जड़ बंधन-सा एक मोह
कसता प्राणों का मृदु शरीर;
आकुलता और जकड़न की
तब ग्रंथि तोड़ती हो अधीर।
हँस कर बोले, बोलते हुए
निकले मधु निर्झर ललित गान;
गानों में हो उल्लास भरा
झूमें जिससे बन मधुर प्रान।
वह आकुलता अब कहाँ रही
जिसमें सब कुछ ही जाए भूल;
आशा के कोमल तंतु-सदृश
तुम तकली में हो रही झूल।
वह क्यों क्या मिलते नहीं तुम्हें
शावक के सुंदर मृदुल चर्म;
तुम बीज बीनती क्यों? मेरा
मृगया का शिथिल हुआ न कर्म।
तिस पर यह पीलापन कैसा
यह क्यों बुनने का श्रम सखेद;
यह किसके लिए बताओ तो
क्या इसमें है छिप रहा भेद?”
“अपनी रक्षा करने में जो
चल जाए तुम्हारा कहीं अस्त्र;
वह तो कुछ समझ सकी हूँ मैं
हिंसक से रक्षा करे शस्त्र।
पर जो निरीह जीकर भी कुछ
उपकारी होने में समर्थ
वे क्यों न जिएँ, उपयोगी बन
इसका मैं समझ सकी न अर्थ!
चमड़े उनके आवरण रहें
ऊनों से मेरा चले काम;
वे जीवित हों मांसल बन कर
हम अमृत दुहें, वे दुग्ध-धाम।
वे द्रोह न करने के स्थल हैं
जो पाले जा सकते सहेतु;
पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं
तो भव-जलनिधि में बनें सेतु।
“मैं यह तो मान नहीं सकता
सुख सहज-लब्ध यों छूट जाएँ;
जीवन का जो संघर्ष चले
वह विफल रहे हम छले जाएँ।
काली आँखों की तारा में,
मैं देखूँ अपना चित्र धन्य;
मेरा मानस का मुकुर रहे,
प्रतिबिंबित तुमसे ही अनन्य!
श्रद्धे! यह नव संकल्प नहीं —
चलने का लघु जीवन अमोल;
मैं उसको निश्चय भोग चलूँ
जो सुख चलदल-सा रहा डोल!
देखा क्या तुमने कभी नहीं
स्वर्गीय सुखों पर प्रलय-नृत्य?
फिर नाश और चिर निद्रा है
तब इतना क्यों विश्वास सत्य?
यह चिर प्रशांत मंगल की क्यों
अभिलाषा इतनी रही जाग?
यह संचित क्यों हो रहा स्नेह
किस पर इतनी हो सानुराग?
यह जीवन का वरदान, मुझे
दे दो रानी अपना दुलार!
केवल मेरी ही चिंता का
तब चित्त वहन कर रहे भार!
मेरा सुंदर विश्राम बना
सृजता हो मधुमय विश्व एक;
जिसमें बहती हो मधु धारा
लहरें उठती हों एक-एक।
“मैंने तो एक बनाया है
चल कर देखो मेरा कुटीर;”
यों कह कर श्रद्धा हाथ पकड़
मनु को ले चली वहीं अधीर।
उस गुफा समीप पुआलों की
छाजन छोटी-सी शांति-पुंज;
कोमल लतिकाओं की डाले
मिल सघन बनातीं जहाँ कुंज।
थे वातायन भी कटे हुए
प्राचीर पर्णमय रचित शुभ्र;
आवें क्षण भर तो चले जाएँ
रुक जाएँ कहीं न समीर, अभ्र।
उसमें था झूला पड़ा हुआ
बेंतसी लता का सुरुचिपूर्ण;
बिछ रहा धरातल पर चिकना
सुमनों का कोमल सुरभिचूर्ण।
कितनी मीठी अभिलाषाएँ
उसमें चुपके से रहीं घूम?
कितने मंगल के मधुर गान
उसके कोनों को रहे चूम!
मनु देख रहे थे चकित नया
यह गृह-लक्ष्मी का गृह-विधान!
पर कुछ अच्छा-सा नहीं लगा
‘यह क्यों? किसका सुख साभिमान?’
चुप थे पर श्रद्धा ही बोली
“देखो यह तो बन गया नीड़;
पर इसमें कलरव करने को
आकुल न हो रही अभी भीड़।
तुम दूर चले जाते हो जब
तब लेकर तकली यहाँ बैठ;
मैं उसे फिराती रहती हूँ
अपनी निर्जनता बीच पैठ।
मैं बैठी गाती हूँ तकली के
प्रतिवर्त्तन में स्वर विभोर—
‘चल री तकली धीरे-धीरे
प्रिय गए खेलने को अहेर।
जीवन का कोमल तंतु बढ़े
तेरी ही मंजुलता समान;
चिर नग्न प्राण उनमें लिपटें
सुंदरता का कुछ बढ़े मान।
किरनों-सी तू बुन दे उज्ज्वल
मेरे मधु जीवन का प्रभात;
जिसमें निर्वसना प्रकृति सरल
ढँक ले प्रकाश से नवल गात।
वासना-भरी उन आँखों पर
आवरण डाल दें कांतिमान;
जिसमें सौंदर्य निखर आवै
लतिका में फुल्ल कुसुम समान।
अब वह आगंतुक गुफा बीच
पशु-सा न रहे निर्वसन नग्न;
अपने अभाव की जड़ता में
वह रह न सकेगा कभी मग्न।
सूना न रहेगा यह मेरा
लघु विश्व कभी जब रहोगे न;
मैं उसके लिए बिछाऊँगी
फूलों के रस का मृदुल फेन।
झूले पर उसे झुलाऊँगी
दुलरा कर लूँगी बदन चूम;
मेरी छाती से लिपटा इस
घाटी में लेगा सहज घूम।
वह आवेगा मृदु मलयज-सा
लहराता अपने मसृण बाल;
उसके अधरों से फैलेगी
नव मधुमय स्मिति-लतिका-प्रवाल।
अपनी मीठी रसना से वह
बोलेगा ऐसे मधुर बोल;
मेरी पीड़ा पर छिड़केगा
जो कुसुम धूलि मकरंद घोल।
मेरी आँखों का सब पानी
तब बन जाएगा अमृत स्निग्ध;
उन निर्विकार नयनों में जब
देखूँगी अपना चित्र मुग्ध।
“तुम फूल उठोगी लतिका-सी
कंपित कर सुख-सौरभ तरंग;
मैं सुरभि खोजता भटकूँगा
वन-वन वन कस्तूरी-कुरंग।
यह जलन नहीं सह सकता मैं
चाहिए मुझे मेरा ममत्व;
इस पंचभूत की रचना में
मैं रमण करूँ बन एक तत्व।
यह द्वैत अरै यह द्विविधा तो
है प्रेम बाँटने का प्रकार
भिक्षुक मैं? ना, यह कभी नहीं
मैं लौटा लूँगा निज विचार।
तुम दानशीलता से अपनी
वन सजल जलद वितरो न बिंदु;
इस सुख-नभ में मैं विचरूँगा
बन सकल कलाधर शरद-इंदु।
भूले से कभी निहारोगी
कर आकर्षणमय हास एक;
मायाविनि! मैं न उसे लूँगा
वरदान समझ कर, जानु टेक!
इस दीन अनुग्रह का मुझ पर
तुम बोझ डालने में समर्थ;
अपने को मत समझो श्रद्धे!
होगा प्रयास यह सदा व्यर्थ।
तुम अपने सुख से सुखी रहो
मुझको दु:ख पाने दो स्वतंत्र;
‘मन की परवशता महा दु:ख’
मैं यही जपूँगा महामंत्र।
लो चला आज मैं छोड़ यहीं
संचित संवेदन भार पुंज;
मुझको काँटे ही मिले धन्य!
हो सफल तुम्हें ही कुसुम-कुंज।
कह, ज्वलनशील अंतर लेकर
मनु चले गए, या शून्य प्रांत;
“रुक जा, सुन ले ओ निर्मोही!”
वह कहती रही अधीर श्रांत।
- पुस्तक : कामायनी (पृष्ठ 137)
- संपादक : जयशंकर प्रसाद
- रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
- प्रकाशन : भारती-भंडार
- संस्करण : 1958
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