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भारत-भारती / वर्तमान खंड / रईसों के सपूत

raison ke saput

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

भारत-भारती / वर्तमान खंड / रईसों के सपूत

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    जब याद आती है बड़ों के उन सपूतों की कथा,

    उनके सखा, संगी, विदुषक और दूतों की कथा।

    तब निकल पड़ते हैं हृदय से वचन ऐसे दुख भरे—

    होवें ऐसे पुत्र चाहे हो कुल-क्षय हे हरे!

    यों तो सभी का बीतता है बाल्यकाल विनोद में,

    वे किंतु सोते-जागते रहते सदा हैं गोद में।

    इस भाँति पल कर प्यार में जब वे सपूत बड़े हुए,

    उत्पात उनके साथ ही घर में अनेक खड़े हुए!

    श्रीमान शिक्षा दे उन्हें तो श्रीमती कहती वहीं—

    “घेरो लल्ला को हमारे, नौकरी करनी नहीं!”

    शिक्षे! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित बनी;

    लो मूर्खते! जीती रहो, रक्षक तुम्हारे हैं धनी॥

    तीतर, लवे, मेंढ़े, पतंगे वे लड़ाते हैं कभी,

    वे दूसरों के व्यर्थ झगड़े मोल लाते हैं कभी।

    दस, बीस उनके दुर्व्यसन हों तो गिने भी जा सकें,

    पथ या विपथ है कौन ऐसा वे जिस पर सकें!

    निकले कि फिर दस पाँच चिड़ियाँ मार लाना है उन्हें,

    बंदूक ले, वन-जंतुओं पर बल दिखाना है उन्हें।

    घातक! तुम्हारी तो सहज ही शाम को यह सैर है,

    पर उन अभागों से कहो, किस जन्म का यह बैर है?

    आया जहाँ यौवन उन्हें बस भूत मानों चढ़ गया,

    जीवन सफल करणार्थ अब उनमें अपव्यय बढ़ गया!

    सौंदर्य के शशि-लोक में सब ओर उनके चर उड़े,

    गुंडे, 'पसीने की जगह लहू' बहाने को जुड़े॥

    संगीत के मर्मज्ञ उनसे आज वे ही दीखते,

    हैं आप भी उनमें बहुत गाना-बजाना सीखते।

    यदि रंडियों के साथ वे ठेका लगाते हैं कभी—

    तो क्या हुआ? अपनी प्रिया पर प्रेम रखते हैं सभी!

    रहती उन्हीं के ठाठ की है धूम मेलों में सदा,

    आगे मिलेंगे वे थियेटर और खेलों में सदा।

    वे नाच-मुजरे और जलसे हैं उन्हीं से लग रहे,

    हैं यार लोगों के उन्हीं से भाग्य जग में जग रहे॥

    यों कुछ दिनों घर फूँक कौतुक देख कर नंगे हुए।

    फिर क्या हुआ? 'सरकार' थे जो दीन भिखमंगे हुए,

    हँसने लगा संसार उनको यार छोड़ गए सभी,

    लुच्चे लफंगे भी किसी के मीत होते हैं कभी?

    आशा भविष्यत् की हमारी क्या इन्हीं पर लग रही?

    क्या पुन्नरक से अंत में हमको उबारेंगे यही?

    बेड़ा इन्हीं से पार होगा क्या स्वदेश-समाज का?

    होगा सु-दृढ़ फिर राज्य किसके हाथ से कलिराज का?

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 113)
    • रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
    • संस्करण : 1984

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