इंद्रावती (विरह अवस्था खंड)
indrawti (wirah awastha khanD)
धन सो धन जेहि बिरह बियोगू। प्रीतम लाग तजै सुख भोगू॥
नेह बीज मन धरतिय बोवै। रैन न सोवै दिन कहँ रोवै॥
धन जेहि जीउ होइ अनुरागी। वारै प्रान सो प्रीतम लागी॥
तजै भोग सुख सुमिरन नाहीं। जागै निसि कहँ सोवइ नाहीं॥
धन सों जन धन मन तेहिक, जागे मन दोहाग।
परै दोह की आग सों, मानस भौ से दाग॥
रोइ दीप सुत डारै धोई। अभिलाषिन अनुरागिन होई॥
इंद्रावति सुकुवार कुमारी॥ भार बियोग परा तेहि भारी॥
प्रेम सरीर बेयाध बढ़ाया। दूबर पीत भयेउ धन काया॥
पान न खाय न पीवै पानी। भूख पियास भुलायेउ रानी॥
व्याकुल भई रात दिन रोवै। बदन करेज रकत सो धोवै॥
प्रेम आग तन काढिय जारा। मारै चाहा मन को पारा॥
भइउ दूबरी रानी, भै बिबरन तन रंग।
बैरिन होइकै लागेउ, ब्याध अंग के सग॥
दुर्बल भइउ ब्याध सों नारी। बल घटि गो भा जीवन भारी॥
चित ध्यान प्रीतम पर राखा। चाखा प्रेम बढ़ेउ अभिलाखा॥
बैरागिन कीन्हा बैरागू। अनुरागिन कीन्हा अनुरागू॥
सुमिरै सोवत बैठी ठाढ़ी। मन असमर्थ अवस्था बाढ़ी॥
प्रेम झकोर भयऊ तेहि सीसू। बैरी बूझै निस रजनीसू॥
सुक्ख भयउ दुख दायक, सुध मति रहेउ न साथ।
परी जगत प्रानेसरी, जड़ता केरी हाथ॥
सुंदर बाक मनाक न भावै। गगन चाक उदबेग सतावै॥
बिरह आग सो भै उर दाहू। धन ससि कहँ भा मंदिर राहू॥
भावर लाय न सिच्छा मानी। छिन-छिन कहै आन की बानी॥
उन्नमाद सों रोवइ हँसई। आसू धरती मोती खसई॥
जियत रहइ धैयान के बाहा। ना तो होत मरन पल माहा॥
धन कहँ अंतरपट भयेउ, गगन ऊँच महि नीच।
छाड़ि सकल धंधा कहँ, परि गुन कत्थन बीच॥
वह रावल जग मित्र नवेला। मन परान कह कीन्हा चेला॥
वह विदग्ध सुकुमार पियारा। रूप गगन सविता उजियारा॥
चिंता कथन बीच धन परी। चिता करै घरी औ घरी॥
केहि उपकार दरस वहि पावउं। केहि उपकारे के ढिग धावहुँ॥
होत भलो होतिउं जरि छारा। देह चढ़ावत रावलु प्यारा॥
बड़ो भाग सारंगी, रहती प्रीतम पास।
मोहि कलेस विछुड़न को, है प्रछन्न परकास॥
- पुस्तक : हिंदी के कवि और काव्य (पृष्ठ 123)
- संपादक : गणेशप्रसाद द्विवेदी
- प्रकाशन : हिंदुस्तानी एकेडेमी, संयुक्त प्रांत, इलाहाबाद
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