मोक्खु ण पावहि जीव तुहुं धणु पस्यिणु चितंतु।
तो इ विचिंतहि तउ जि तउ पावहि सुक्खु महंतु॥
घस्वासउ मा जाणि जिय दुक्कियवासउ एहु।
पासु कयंते मंडियउ अविचलु ण वि संदेहु॥
मूढ़ा सयलु वि कारिमउ मं फुहु तुहु तुस कंहि।
सिवपईं णिम्मलि करहि स्इ घरु परियणु लहु छंडि॥
मोहु विलिज्जइ मणु मरइ तुट्टइ सासु णिसासु।
केवलणाणु वि परिणवइ अंबरि जाह णिवासु॥
सप्पि मुक्की कंचुलिय जं विसु ते ण मुएइ।
भोयहं भाउ ण परिहरइ लिंगग्गहणु करेइ॥
जो मुणि छंडिवि विसयसुह पुणु अहिलासु करेइ।
लुंचणु सोसणु सो सहइ पुणु संसारु भमेइ।॥
विसयसुहा दुइ दिवहडा पुणु दुक्खहं परिवाडि।
भुल्लउ जीवम म वाहि तुहं अप्पाखंधि कुहाडि॥
उठ्वलि चोप्पडि चिट्ठ करि देहि सुमिट्ठाहार।
सयल वि देह णिस्त्थ गय जिह दुज्जणउवयार॥
अथिरेण थिरा मइलेण णिम्मला णिग्गुणेण गुणसारा।
काएण जा विढप्पइ सा किस्या किण्ण कायव्वा॥
वरु विसु विसहरु वरु जलणु वरु सेविउ वणवासु।
णउ निणधम्मपम्मुहउ मित्थतिय सहु वासु॥
हे जीव! तू धन और परिजन का चिंतन करने से मोक्ष नहीं पा सकता, अत: तू अपनी आत्मा का ही चिंतन कर, जिससे तू महान सुख पाएगा।
हे जीव! उस धन-परिजन को तू गृहवास मत समझ, वह तो दुष्कृत्य का धाम है और वह यम का फैलाया हुआ फंदा है—इसमें संदेह नहीं।
हे मूढ़जीव! बाहर के ये सब कर्मजाल है।प्रकट भूसे को तू मत कूट! घर-परिजन को शीघ्र छोड़कर निर्मल शिवपद में प्रीति कर!
आकाश में जिसका निवास हो जाता है, उसका मोह नष्ट हो जाता है, मन मर जाता है, श्वासोश्वास छूट जाता है और वह केवल ज्ञानरूप शेष रहता है।
सर्प बाहरी केंचुली को तो छोड़ देता है, परंतु भीतर के विष को नहीं छोड़ता, उसी प्रकार अज्ञानी जीव द्रव्यलिंग धारण करके बाह्यत्याग तो करता है, परंतु अंतर में से विषयभोगों की भावना का परिहार नहीं करता।
जो मुनि छोड़े हुए विषयसुखों की फिर से अभिलाषा करता है, वह मुनि केशलोचन एवं श्रीशोषण के क्लेश को सहन करता हुआ भी संसार में ही परिभ्रमण करता है।
ये विषय-सुख तो क्षणिक हैं, फिर तो दुखों की ही परिपाटी है। इसलिए हे जीव! भूल कर तू अपने ही कंधे पर कुल्हाड़ी मत मार।
जैसे दुश्मन के प्रति किए गए उपकार बेकार जाते हैं, वैसे हे जीव! तू इस शरीर को स्नान कराता है, तैलमर्दन कराता है तथा सुमिष्ट भोजन खिलाता हैं, वे सब निरर्थक जानेवाले हैं अर्थात् यह शरीर तेरा कुछ भी उपकार करने वाला नहीं है, अत, इसकी ममता छोड़ दे।
अस्थिर, मलिन और निर्गुण—ऐसी काया से स्थिर, निर्मल तथा सारभूत गुणवाली क्रिया क्यों न की जाए? (अर्थात् यह शरीर विनाशी, मलिन एव गुणरहित हैं, उसकी ममता छोड़कर उसमें स्थित अविनाशी, पवित्र एवं सारभूत गुणवाली आत्मा की भावना करनी चाहिए।
विष भला, विषधर भी भला, अग्नि या वनवास का सेवन भी अच्छा। परंतु जिनधर्म से विमुख ऐसे मिथ्यादृष्टियों का सहवास अच्छा नहीं।
- पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 12)
- संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
- रचनाकार : मुनि राम सिंह
- प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
- संस्करण : 1992
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