भारत-भारती / अतीत खंड / हमारा साहित्य

hamara sahity

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

भारत-भारती / अतीत खंड / हमारा साहित्य

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    साहित्य का विस्तार अब भी है हमारा कम नहीं;

    प्राचीन किंतु नवीनता में अन्य उसके सम नहीं।

    इस क्षेत्र से ही विश्व के साहित्य-उपवन हैं बने,

    इसको उजाड़ा काल ने आघात कर यद्यपि घने॥

    फैला यहीं से ज्ञान का आलोक सब संसार में,

    जागी यहीं थी जग रही जो ज्योति अब संसार में।

    इंजील और कुरान आदिक थे तब संसार में-

    हमको मिला था दिव्य वैदिक बोध जब संसार में॥

    जिनकी महत्ता का कोई पा सका है भेद हो,

    संसार में प्राचीन सब से हैं हमारे वेद ही।

    प्रभु ने दिया यह ज्ञान हमको सृष्टि के आरंभ में,

    है मूल चित्र पवित्रता का सभ्यता के स्तंभ में॥

    विख्यात चारों वेद मानों चार सुख के सार हैं,

    चारों दिशाओं के हमारे वे जय-ध्वज चार हैं

    वे ज्ञान-गरिमाऽगार हैं, विज्ञान के भांडार है;

    वे पुण्य-पारावार हैं, आचार के आधार हैं॥

    जो मृत्यु के उपरांत भी सबके लिए शांति प्रदा-

    है उपनिषद्विद्या हमारी एक अनुपम संपदा।

    इस लोक को परलोक से करती वही एकत्र है,

    हम क्या कहें, उसकी प्रतिष्ठा हो रही सर्वत्र है॥

    उन सूत्र-ग्रंथों का अहा! कैसा अपूर्ण महत्त्व है,

    अत्यल्प शब्दों में वहाँ संपूर्ण शिक्षा-तत्त्व है।

    उन ऋषि-गणों ने सूक्ष्मता से काम कितना है लिया,

    आश्चर्य है, घट में उन्होंने सिंधु को है भर दिया॥

    उस दिव्यदर्शन-शास्त्र में है कौन हमसे अग्रणी?

    यूनान, यूरुप, अरब आदि हैं हमारे ही ऋणी।

    पाए प्रथम जिनसे जगत ने दार्शनिक संवाद हैं-

    गौतम, कपिल, जैमिन, पतंजलि, व्यास और करणाद हैं॥

    दृष्टांत दर्शन ही हमारी उच्चता के हैं बड़े,

    हैं कह रहे सबसे वही संसार में होकर खड़े-

    “हे विश्व! भारत के विषय में फिर कुशंकाएँ करो-

    हम दर्शनों का साम्य पहले आज भी आगे धरो॥

    यह क्या हुआ कि अभी तो रो रहे थे ताप से,

    हैं, और अब हँसने लगे वे आप अपने आप से।

    ऐं क्या कहा, निज चेतना पर गई उनकी हँसी,

    गीता-श्रवण के पूर्व थी जो मोह-माया में फँसी॥

    रचते कहीं मन्वादि ऋषि वे धर्मशास्त्र जो यहाँ,

    कानून ताजीरात जैसे आज वे बनते कहाँ?

    उन संहिताओं के विमल वे विधि-निषेध विधान हैं-

    या लोक में, परलोक में, वे शांति के सोपान हैं॥

    निज नीति-विद्या का हमें रहता यहाँ तक गर्व था-

    हम आप जिस पथ पर चले सत्पथ वही है सर्वथा।

    सामान्य नीति समेत ऐसे राजनैतिक ग्रंथ हैं-

    संसार के हित जो प्रथम पुण्याचरण के पंथ हैं

    चाणक्य से नीतिज्ञ थे हम और निश्चल निश्चयी,

    जिनके विपक्षी राजकुल की भी इतिश्री हो गई।

    है विष्णुशर्मा ने घड़े में सिंधु सचमुच भर दिया-

    कहकर कहानी ही जड़ों को पूर्ण पंडित कर दिया!॥

    वृत्तांत पहले व्योम का प्रकटित हमीं ने था किया,

    वह क्रांति मंडल था हमीं से अन्य देशों ने लिया।

    थे आर्य्यभट,आचार्य भास्कर-तुल्य ज्योतिर्विद यहाँ,

    अब भी हमारे 'मान मंदिर' वर्णनीय नहीं कहाँ?॥

    जिस अंक-विद्या के विषय में वाद का मुँह बंद है,

    वह भी यहाँ के ज्ञान-रवि की रश्मि एक अमंद है।

    डर कर कठोर कलंक से, वा सत्य के आतंक से-

    कहते अरब वाले अभी तक 'हिंदसा' ही अंक से॥

    उन 'सुल्व-सूत्रों' के जगत में जन्मदाता है हमीं,

    रेखागणित के आदि ज्ञाता या विधाता हैं हमीं।

    हमको हमारी वेदियाँ पहले इसे दिखला चुकीं-

    निज रम्य-रचना-हेतु वे रेखागणित सिखला चुकीं॥

    आकार देख प्रकार थे हम जान जाते आप ही,

    वे शास्त्र 'सामुद्रिक' सरीखे थे बनाते आप ही।

    विज्ञान से भी 'फलित ज्योतिष' हो रहा अब सिद्ध है,

    यद्यपि अविज्ञों से हुआ वह निंद्य और निषिद्ध है॥

    प्राचीन हो जो है न, जिससे अन्य भाषाएँ बनीं;

    भाषा हमारी देववाणी श्रुति-सुधा से है सनी।

    है कौन भाषा यों अमर व्युत्पत्ति रूपी प्राण से?

    हैं अन्य-भाषा-शव उसके सामने म्रियमाण से॥

    निकला जहाँ से आधुनिक वह भिन्न भाषा तत्त्व है,

    रखती भाषा एक भी संस्कृत-समान महत्त्व है।

    पाणिनि-सदृश वैयाकरण संसार भर में कौन है?

    इस प्रश्न का सर्वत्र उत्तर उत्तरोत्तर मौन है॥

    उस वैद्यविद्या के विषय में अधिक कहना व्यर्थ है,

    सुश्रुत, चरक रहते हुए संदेह रहना व्यर्थ है।

    अनुवादकतो आज भी उपहार उनके पा रहे,

    हैं आर्य्य आयुर्वेद के सब देश सद्गुण गा रहे॥

    थे हार जात अन्य देशी वैद्यवर जिस रोग से-

    हम भस्म करते थे उसे बस भस्म के ही योग से।

    थे दूर देशों के नृपति हमको बुलाकर मानते,

    इतिहास साक्षी है, हमें सब थे जगद्गुरु जानते॥

    है आज कल की डाक्टरी जिससे महामहिमा मयी,

    वह 'आसुरी' नामक चिकित्सा है यहीं से ली गई।

    नाड़ी-नियम-युत रोग के निश्चित निदान हुए यहाँ,

    सब औषधों के गुण समझकर रस-विधान हुए यहाँ॥

    कविवर्य्य शेक्सपियर तथा होमर सदा सम्मान्य हैं,

    विख्यात फिरदौसी-सदृश कवि और भी अन्यान्य हैं।

    पर कौन उनमें मनुज-मन को मुग्ध इतना कर सके,

    वाल्मीकि, वेदव्यास, कालीदास जितना कर सके॥

    संसार भर के ग्रंथ-गिरि पर चित्त से पहले चढ़ो,

    उपरांत रामायण तथा गीता-प्रथित भारत पढ़ो।

    कोई बतादो फिर हमें, ध्वनि सुन पड़ी ऐसी कहाँ?

    हे हरि! सुनें केवल यही ध्वनि अंत में हम हों जहाँ॥

    यद्यपि अतुल अगणित हमारे/ग्रंथ-रत्न नए नए,

    बहु बार अत्याचारियों से नष्ट-भ्रष्ट किए गए।

    पर हाय! आज रहीं सहीं भी पोथियाँ यों कह रहीं-

    क्या तुम वही हो! आज तो पहचान तक पड़ते नहीं॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 33)
    • रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
    • संस्करण : 1984

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