ढोला-मारवणी-मिलन
Dhola marawni milan
सखि वउळावो फिरि गई, प्री मिळियउ एकंत।
मुळकत ढोलउ चमकियउ, वीजळ खिवी क दंत॥
ढोलइ जाँण्यउ वीजळी, मारू जाँण्यउ मेह।
च्यारि आँख एकठि हुई, सयणे वध्यो सनेह॥
ढोलउ मिळियउ मारवी, दे आलिंगण चित्त।
कर ग्रह आँणी अंक-मइँ, सेज सुणेसी बत्त॥
मारू वइठी सेज-सिर, प्री मुख देखइ तास।
पूनिम-केरे चंद ज्यूँ, मंदिर हुवउ उजास॥
काया झबकइ कनक जिम, सुंदर, केहे सुख्ख।
तेह सुरंगा जिम हुवइँ, जिण वेहा बहु दुख्ख॥
मनि संकाणी मारुवी, खुणसउ राखड़ कंत।
हँसताँ पी सूँ वीनवइ, साँभळि, प्री, विरतंत॥
पहुर हुवउ ज पधारियाँ, मो चाहंती चित्त।
डेडरिया खिण-मइ हुवइ घण बूठइ सरजित्त॥
पहिली होय दयामणउ रवि आथमणउ जाइ।
रवि ऊगइ विहसइ कँमळ, खिण इक विमणउ थाइ॥
ढोलउ मन आणंदियउ, चतुर तणे वचनेह।
मारू-मुख सोरंभियउ, आवि भमर भणकेह॥
कंठ विलग्गी मारवी, करि कंचूवा दूर।
चकवी मनि आणँद हुवउ, किरण पसार्या सूर॥
आसालूँध उतारियउ, धण कुंचुवउ गळाँह।
घूमइ पड़िया हंसड़ा, भूला माँनसराँह॥
मन मिळिया, तन गड्डिया, दोहग दूरि गयाह।
सज्जण पाणी खीर ज्यूँ, खिल्लोखिल्ल थयाह॥
पंचाइण नइँ पाखरयउ मइँगळ नइ मद कीध।
मोहण वेली मारुई, कंत पेम-रस पीध॥
ढोलउ मारू एकठा, करइ कतुहळ-केळि।
जाँणे चंदन-रूँखड़इ, विळगी नागर-वेळि॥
लहरी सायर-संदियाँ, वूठउ-संदउ वाव।
वीछुड़ियाँ साजण मिळइ, वळि किउँ ताढउ ताव॥
हियमाँ करइ वधाँमणाँ, सही त सीधा काज।
जे सुपनंतर दीखता, नयणे मिळिया आज॥
जिणनूँ सपनें देखती, प्रगट भए प्रिव आइ।
डरती आँख न मूँदही, मत सुपनउ हुय जाइ॥
आजे रळी-वधाँमणाँ, आजे नवला नेह।
सखी, अम्हीणी गोठमइँ, दूधे वूठा मेह॥
सजण मिल्या, मन ऊमग्यउ अउगुण सहि गळियाह।
सूका था सू पाल्हव्या, पाल्हविया फळियाह॥
सेज रमंताँ मारुवी, खिण मेल्हणी म जाइ।
जाँणि क विकसी केतकी, भमर वयट्ठउ आइ॥
जिम मधुकर नइ कमलणी, गंगासागर वेळ।
लुबधा ढोलउ-मारुवी, काँम-कतूहल-केळ॥
धरती जेहा भरखमा, नमणा जेही केळि।
मज्जीठाँ जिम रच्चणाँ, दई, सु सज्जण मेळि॥
ज्यूँ सालूराँ सरवराँ, ज्यूँ धरतीयूँ मेह।
चंपक-वरणउ वालहड चंदमुखी नेह॥
बेऊँ चतुर सुजाँण पेम-रँग-रस पिया।
बरखा रुति घण वरख जाँणि कु हरखिया॥
भी सिणगार सँवारि क आई सेज परि।
(परिहाँ) जाँणे अपछर इंद्र क बैठा आप धरि॥
दोउ मयमंत सुजाँण सेज दिसि बाहुड़इ।
जाँणे धरती-काज असप्पति आहुड़इ॥
अहरे अहर लगाइ तने तन मेळिया।
(परिहाँ) जाँणि क गाँधी-हाट जुवाँने भेळिया॥
मारवणी इम वीनवइ, धनि आजूणी राति।
गाहा-गूढा-गीत-गुण, कहि का नवली वाति॥
गाहा-गीत-विनोद-रस, सगुणाँ दीह लियंति।
कइ निद्रा, कइ कळह करि, मूरिख दीह गमंति॥
विरह बियापी रयण भरि, प्रीतम विणु तन खीण।
वीण अलापी देखि ससि, किस गुण मेल्ही वीण॥
वीण अलापी देखि ससि, रयणी नाद सलीण।
ससिहर मृगरथ मोहियउ, तिण हसि मेल्ही बीण॥
सुंदरि चोरे संग्रही, सब लीया सिणगार।
नक-फूली लीधी नहीं, कहि सखि, कवण विचार॥
अहर-रंग रत्तउ हुवइ, मुख काजळ मसि ब्रन्न।
जाँण्यउ गुंजाहळ अछइ तेण न ढूकउ मन्न॥
परदेसाँ प्री आवियउ, मोती आँण्या जेण।
धण कर कँवळाँ झालिया, हसि करि नाँख्या केण॥
कर रत्ता मोती नृमळ, नयणे काजल-रेह।
धण भूली गुंजाहळे, हसिकरि नाँख्या तेह॥
तरुणी पुणोवि गहियं परीयच्चय भिंतरेण पिउ दिट्ठं।
कारण कवण सयाणे दीपक्को घूणए सीसं॥
बालँभ, दीपक पवन-भय, अंचळ-सरण पयट्ठ।
कर-हीणउ धूणइ कमळ, जाँण पयोहर दिट्ठ॥
वनिता-पति विदेस गय मंदिर-मझे अद्धरयणीए।
बाळा लिहइ भुयंगो, कहि सुंदरि, कवण चुज्जेण॥
सा बाळा प्री चिंतवइ, खिणखिण रयणि बिहाइ।
तिण हर-हार परठ्ठव्यउ ज्यूँ दीवळउ बुझाइ॥
बहु दिवसे प्री आवियउ, सझिया त्री सिणगार।
निजरि दिखाई आदिरस, किम सिणगार उतार॥
इन्द्राँ-वाहण-नासिका, तासु तणइ उणिहार।
तस भख हूवउ प्राहुणउ, तिणि सिणागार उतार॥
ससनेही सज्जण मिल्या, रयण रही रस लाइ।
चिहुँ पहुरे चटकउ कियउ, वैरणि गई बिहाइ॥
- पुस्तक : ढोला मारू रा दूहा (पृष्ठ 167)
- संपादक : रामसिंह, सूर्यकरण पारीक, नरोत्तमदास स्वामी
- रचनाकार : कुशललाभ
- प्रकाशन : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर
- संस्करण : 2005
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