वामिय किय अरु दाहिणिय मज्झइं वहइ णिराम।
तहिं गामडा जु जोगवइ अवर वसावइ गाम॥
देव तुहारी चिंत महु मज्झणपसरवियालि।
तुहं अच्छेसहि जाइ सुउ परइ णिरामइ पालि॥
तुट्टइ बुद्धि तडति जहिं मणु अंथवणहं जाइ।
सो सामिय उवएसु कहि अण्णहिं देवहिं काइं॥
सयलीकरणु ण जाणियउ पाणियपण्णहं भेउ।
अप्पापरहु ण मेलयउ गंगहु पुज्जइ देउ॥
अप्पापरहं ण मेलयउ आवागमणु ण भग्गु।
तुस कंडंतहं कालु गउ तंदुलु हत्थि ण लग्गु॥
देहादेवलि सिउ वसइ तुहुं देवलइं णिएहि।
हासउ महु मणि अत्थि इहु सिदधें भिक्ख भमेहि॥
वणि देवलि तित्थइं भमहि आयासो वि णियंतु।
अम्मिय विहडिय भेडिया पसुलोगडा भमंतु॥
वे छंडेविणु पंथडा
विच्चे जाइ अलक्खु।
तहो फल वेयहो किं पि णउ
जइ सो पावइ लक्खु॥
जोइय विसमी जोयगइ
मणु वारणहं ण जाइ।
इंदियविसय जि सुक्खडा
तितथइं वलि वलि जाइ॥
बद्धउ तुहुवणु परिभमइ मुक्कउ पउ वि ण देइ।
दिक्खु ण जोइय करहुलउ विवरेरउ पउ देइ॥
हे योगी! तूने चारों ओर इंद्रिय-विषयरूपी ग्राम बसाए, परंतु अंतर को तो सूना रखा वहाँ भी एक इंद्रियातीत नगर बसा दे।
हे देव! मुझे तुम्हारी चिंता है, जब यह मध्याह्न का प्रसार बीत जाएगा, तब तू तो सोता रहेगा और यह पाली सूनी पड़ी रहेगी। अर्थात् जब तक आत्मा है, तब तक इंद्रियों की यह नगरी बसी हुई दिखती है, आत्मा के चले जाने पर वह सब उजाड़ हो जाता है, अत: विषयों से विमुख होकर आत्मा को साध लेना चाहिए।
हे स्वामी! मुझे कोई ऐसा अपूर्व उपदेश दीजिए जिससे मिथ्या बुद्धि तड़ाक से टूट जाए और मन भी अस्तगत हो जाए। अन्य देव से मुझे क्या लेना-देना है?
जो सकली करन या पानी-पत्र के भेद को नहीं जानता, तथा आत्मा-परमात्मा का संबंध नहीं करता, वह तो पत्थर के टुकड़े को देव समझकर पूजता है।
जिसने आत्मा का परमात्मा से संबंध नहीं किया और न आवागमन मिटाया, उसे तुस को कूटते हुए बहुत समय बीत गया तो भी तंदुल का एक दाना भी हाथ में न आया।
देहरूपी देवालय में स्वयं शिव बस रहा है और तू उसे अन्य देवल में ढूँढता फिरता है। अरे, सिद्धप्रभु भिक्षा के लिए भ्रमण कर रहा है—यह देखकर मुझे हँसी आती है।
वन में, देवालयों में तथा तीर्थों में भ्रमण किया, आकाश में भी ढूँढ़ा, परंतु इस भ्रमण में भेड़ियों और पशु जैसे लोगों से ही भेंट हुई।
पुण्य तथा पाप दोनों के मार्ग को छोड़कर अलख के अंदर जाना होता है, पुण्य-पाप का कुछ ऐसा फल नहीं मिलता कि लक्ष्य-प्राप्ति हो।
हे योगी! जोग की गति विषम है, मन रोका नहीं जाता और भौतिक सुखों में बलि-बलि जाता है, वह फिर-फिर इंद्रिय-विषयों में भ्रमण करता है।
हे योगी, आश्चर्य की बात देखो! यह चैतन्य-करभ (करभ यानी ऊँट) की गति कैसी विपरीत-विचित्र है! जब वह बँधा है तब तो तीन भुवन में भ्रमण करता है और जब छूटा (मुक्त) हो, तब तो एक डग भी नहीं भरता। (संसार में सामान्यत. ऐसा होता है कि ऊँट वगैरह प्राणी जब मुक्त हों तब चारों तरफ़ घूमते रहते हैं, और जब बँधे हुए हों तब घूम-फिर नहीं सकते। किंतु आत्मा की गति ऐसी विचित्र है कि जब वह कर्मबंधन से मुक्त होती है तब तो एक डग भी नहीं चलती—स्थिर ही रहती है, और जब बंधन में बँधी हो तब तो चारों गति में, तीन लोक में घूमती रहती है।)
- पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 40)
- संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
- रचनाकार : मुनि राम सिंह
- प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
- संस्करण : 1992
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.