भारत-भारती / वर्तमान खंड / शिक्षा की अवस्था

shikshaa kii avasthaa

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

भारत-भारती / वर्तमान खंड / शिक्षा की अवस्था

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    हा! आज शिक्षा मार्ग भी संकीर्ण होकर विष्ट है,

    कुलपति सहित उन गुरुकुलों का ध्यान ही अवशिष्ट है।

    बिकने लगी विद्या यहाँ अब, शक्ति हो तो क्रय करो,

    यदि शुल्क आदि दे सको तो मूर्ख रह कर ही मरो!

    ऐसी असुविधा में कहो वे दीन कैसे पढ़ सकें?

    इस ओर वे लाखों अकिंचन किस तरह से बढ़ सकें?

    अधपेट रह कर काटते हैं मास के दिन तीस वे,

    पावें कहाँ से पुस्तकें, लावें कहाँ से फ़ीस वे॥

    वह आधुनिक शिक्षा किसी विध प्राप्त भी कुछ कर सको—

    तो लाभ क्या, बस क्लर्क बन कर पेट अपना भर सको!

    लिखते रहो जो सिर झुका सुन अफसरों की गालियाँ!

    तो दे सकेंगी रात को दो रोटियाँ घरवालियाँ॥

    अब नौकरी ही के लिए विद्या पढ़ी जाती यहाँ,

    बी० ए० हों हम तो भला डिप्टीगरी रखी कहाँ?

    किस स्वर्ग का सोपान है तू हाय री, डिप्टीगरी!

    सीमा समुन्नति की हमारी, चित्त में तू ही भरी!!

    शिक्षार्थ क्षात्र विदेश भी जाते अवश्य कभी-कभी,

    पर वकृता ही झाड़ते हैं लौट कर प्राय: सभी!

    है काम कितनों का यही पहले यहाँ मिस्टर बने,

    इंगलैंड जाकर फिर वहाँ वाग्वीर बारिस्टर बने॥

    वे वीर हाय! स्वदेश का करते यही उपकार हैं—

    दो भाइयों के युद्ध में होते वही आधार हैं!

    उनके भरोसे पर यहाँ अभियोग चलते हैं बड़े,

    हारे कि जीते आप, उनके किंतु पौ-बारह पड़े!

    जाकर विदेश अनेक अब तक युवक अपने चुके,

    पर देश के वाणिज्य-हित की ओर कितने हैं झुके?

    हैं कारखाने कौन-से उनके प्रयत्नों से चले?

    क्या-क्या सु-फल निज देश में उनसे अभी तक हैं फले?

    अमरीकनों के पात्र जूँठे साफ कर पंडित हुए,

    सच्चे स्वदेशी मान से फिर भी नहीं मंडित हुए!

    दृष्टांत बनते हैं कि वे इस कहावत के लिए—

    बारह बरस दिल्ली रहे पर भाड़ ही झोंका किए!”

    दासत्व के परिणाम वाली आज है शिक्षा यहाँ,

    हैं मुख्य दो ही जीविकाएँ—भृत्यता, भिक्षा यहाँ!

    या तो कहीं बन कर मुहर्रिर पेट का पालन करो,

    या मिल सके तो भीख माँगो, अन्यथा भूखों मरो!

    बिगड़े हमारे अब सभी स्वाधीन वे व्यवसाय हैं,

    भिक्षा तथा बस भृत्यता ही आज शेष उपाय हैं।

    पर हाय! दुर्लभ हो रही है प्राप्ति इनकी भी यहाँ,

    यह कौन जाने इस पतन का अंत अब होगा कहाँ!

    वह सांप्रतिक शिक्षा हमारे सर्वथा प्रतिकूल है,

    हममें, हमारे देश के प्रति, द्वेष-मति की मूल है।

    हममें विदेशी-भाव भर के वह भुलाती है हमें,

    सब स्वास्थ्य का संहार करके वह रुलाती है हमें!!

    होती नहीं उससे हमें निज धर्म में अनुरक्ति है,

    होने देती पूर्वजों पर वह हमारी भक्ति है।

    उसमें विदेशी मान का ही मोह-पूर्ण महत्व है,

    फल अंत में उसका वही दासत्व है, दासत्व है!

    हम मूर्ख और असभ्य थे, उससे विदित होता यही,

    इस मर्म को कि हम जगद्गुरु थे, छिपाती है वही।

    फ्री थाट ही वह वेद के बदले रटाती है हमें,

    देखो, हटा कर असलियत से वह घटाती है हमें॥

    क्या लाभ है उन हिस्ट्रियों को कंठ करने से भला—

    रटते हुए जिनको हमारा बैठ जाता है गला?

    हा! स्वेद बन कर व्यर्थ ही बहता हमारा रक्त है,

    सन्-संवतों के फेर में बरबाद होता वक्त है!

    दुर्भाग्य से अब एक तो वह ब्रह्मचर्याश्रम नहीं,

    तिस पर परिश्रम व्यर्थ यह पड़ता हमें कुछ कम नहीं!

    फिर शीघ्र ही चश्मा हमारे चक्षु चाहें क्यों नहीं?

    हम रुग्ण होकर आमरण दुख से कराहें क्यों नहीं?

    है व्यर्थ वह शिक्षा कि जिससे देश की उन्नति हो,

    जापान के विद्यार्थियों की सूक्ति है कैसी अहो!

    साहब! हमें यूरोपियन हिस्ट्री अब दिखलाइए,

    बेलन की रचना हमें करके कृपा सिखलाइए॥

    करके सु-शिक्षा की उपेक्षा यों पतित हम हो रहे,

    हो प्राप्त पशुता को स्वयं मनुजत्व अपना खो रहे।

    आहार, निद्रा आदि में नर और पशु क्या सम नहीं?

    है ज्ञान का बस भेद सो भूले उसे क्या हम नहीं?

    धर्मोपदेशक विश्व में जाते जहाँ से थे सदा,

    शिक्षार्थ आते थे जहाँ संसार के जन सर्वदा।

    अज्ञान के अनुचर वहाँ अब फिर रहे फूले हुए,

    हम आज अपने आपको भी हैं स्वयं भूले हुए॥

    अपमान हाय! सरस्वती का कर रहे हम लोग हैं,

    पर साथ ही इस धृष्टता का पा रहे फल-भोग हैं!

    निज देवता के कोप में कल्याण किसका है भला,

    हम मोह-मुग्ध फँसा रहे हैं आप ही अपना गला॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 116)
    • रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
    • संस्करण : 1984

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