भारत-भारती / अतीत खंड / हमारी वीरता

hamaarii viirtaa

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

भारत-भारती / अतीत खंड / हमारी वीरता

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    थे कर्म्मवीर कि मृत्यु का भी ध्यान कुछ धरते थे,

    थे युद्धवीर कि काल से भी हम कभी डरते थे।

    थे दानवीर कि देह का भी लोभ हम करते थे,

    थे धर्म्मवीर कि प्राण के भी मोह पर मरते थे!

    वे सूर्यवंशी, चंद्रवंशी वीर थे कैसे बली,

    जो थे अकेले ही मचाते शत्रु-दल में खलबली।

    होते वे यदि चक्रवर्ती भूप दिग्विजयी यहाँ,

    होते भला फिर 'अश्वमेघ' कि 'राजसूय' कहो कहाँ?

    थे भीम-तुल्य महाबली, अर्जुन-समान महारथी,

    श्रीकृष्ण लीलामय हुए थे आप जिनके सारथी।

    उपदेश गीता का हमारा युद्ध का ही गीत है,

    जीवन-समर में भी जनों को जो दिलाता जीत है॥

    हम थे धनुर्वेदज्ञ जैसे और वैसा कौन था?

    जो शब्द-वेधी बाण छोड़े शूर ऐसा कौन था?

    हाँ, मत्स्य जैसे लक्ष्य-वेधक धीर-धन्वी थे यहाँ,

    रिपु को गिरा कर अस्त्र पीछे लौट आते थे कहाँ?

    थी चंचला की-सी चमक या शीघ्रता संधान की,

    कृतहस्तता ऐसी कि गति थी हाथ में ही बाण की।

    मुँह खोल कुत्ता भूँकने में बंद फिर जब तक करे,

    भर जाए मुख तूणीर-सा, पर बात क्या जो वह मरे॥

    जिसके समक्ष एक भी विजयी सिकंदर की चली,

    वह चंद्रगुप्त महीप था कैसा अपूर्व महाबली?

    जिससे कि सिल्यूकस समर में हार तो था ले गया,

    कांधार आदिक देश देकर निज सुता था दे गया!

    जो एक सौ-सौ से लड़े ऐसे यहाँ पर वीर थे,

    सम्मुख समर में शैल-सम रहते सदा हम धीर थे।

    शंका थी, जब-जब समर का साज भारत ने सजा,

    जावा, सुमात्रा, चीन, लंका सब कहीं डंका बजा॥

    मोहे विदेशी वीर भी जिस वीरता के गान से,

    जिस पर बने हैं ग्रंथ 'रासो' और 'राजस्थान' से।

    थी उष्णता वह उस हमारे शेष शोणित की अहा!

    जो था महाभारत-समर में नष्ट होते बच रहा॥

    रक्षक यवन साम्राज्य के भी राजपूत रहे यहाँ,

    पड़ती कठिनता थी जहाँ जाते वही तो थे वहाँ।

    नृप मान-कृत काबुल-विजय की बात सबको ज्ञात है,

    दृढ़ता शिवाजी के निकट जयसिंह की विख्यात है॥

    क्षत्राणियाँ भी शत्रुओं से हैं यहाँ निर्भय लड़ीं,

    इतिहास में जिनकी कथाएँ हैं अनेक भरी पड़ीं।

    देकर विदा युद्धार्थ पति को प्रेमवल्ली-सी खिली,

    यदि फिर भेंट हुई यहाँ तो स्वर्ग में झट जा मिलीं॥

    वह सामरिक सिद्धांत भी औदार्य-पूर्ण पवित्र था,

    थी युद्ध में ही शत्रुता, अन्यत्र बैरी मित्र था!

    जय-लोभ में भी छल-कपट ने पाता पास था,

    प्रतिपक्षियों को भी हमारे सत्य का विश्वास था॥

    पाते थे जय युद्ध में ही हम सुयश के साथ में,

    इंद्रिय तथा मन भी निरंतर थे हमारे हाथ में।

    हम धम्म धनु से भक्ति-शर भी छोड़ने में सिद्ध थे,

    अतएव अक्षर लक्ष्य भी करते निरंतर विद्ध थे॥

    यद्यपि रहे हम वीर ऐसे-विश्व को जब कर सकें,

    ऐसे नहीं थे जो समर में शक्र को भी डर सकें।

    परराज्य को तो थे सदा हम तुच्छ तृण-सा मानते,

    लाचार होकर ही कभी लंका-सदृश रण ठानते॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 49)
    • रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
    • संस्करण : 1984

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