आदर्श-जन संसार में इतने कहाँ पर हैं हुए?
सत्कार्य्य-भूषण आर्य्य-गण जितने यहाँ पर हैं हुए।
हैं रह गए यद्यपि हमारे गीत आज रहे सहे,
पर दूसरों के भी वचन साक्षी हमारे हो रहे॥
गौतम, वशिष्ठ-समान मुनिवर ज्ञान-दायक थे यहाँ,
मनु, याज्ञवल्क्य-समान सत्तम विधि-विधायक थे यहाँ।
वाल्मीकि वेदव्यास से गुण-गान गायक थे यहाँ,
पृथु, पुरु, भरत, रघु-से अलौकिक लोकनायक थे यहाँ॥
लक्ष्मी नहीं, सर्वस्व जाने, सत्य छोड़ेंगे नहीं;
अंधे बनें पर सत्य से संबंध तोड़ेंगे नहीं।
निज सुत-मरण स्वीकार है पर वचन की रक्षा रहे,
है कौन जो उन पूर्वजों के शील की सीमा कहे?॥
सर्वस्व करके दान जो चालीस दिन भूखे रहे,
अतिथि सत्कार में फिर भी न जो रूखे रहे।
पर-तृप्ति कर निजतृप्ति मानी रन्तिदेव नरेश ने,
ऐसे अतिथि संतोष-कर पैदा किए इस देश ने॥
आमिष दिया अपना जिन्होंने श्येन-भक्षण के लिए,
जो बिक गए चाण्डाल के घर सत्य-रक्षण के लिए!
दे दीं जिन्होंने अस्थियाँ परमार्थ हित जानी जहाँ,
शिवि, हरिश्चंद्र, दधीच से होते रहे दानी यहाँ॥
सत्पुत्र पुरु से थे जिन्होंने तात-हित सब कुछ सहा,
भाई भरत-से थे जिन्होंने राज्य भी त्यागा अहा!
जो धीरता के, वीरता के प्रौढ़तम पालक हुए,
प्रह्लाद, ध्रुव, कुश, लव तथा अभिमन्यु-सम बालक हुए॥
वह भीष्म का इन्द्रिय दमन, उनकी धरा-सी धीरता,
वह शील उनका और उनकी वीरता, गंभीरता।
उनकी सरलता और उनकी वह विशाल विवेकता,
है एक जन के अनुकरण में सब गुणों की एकता॥
वर वीरता में भी सरसता वास करती थी यहाँ,
पर साथ ही वह आत्म-संयम था यहाँ का-सा कहाँ?
आकर करे रति-याचना जो उर्वशी-सी भामिनी,
फिर कौन ऐसा है, कह जो मत कहो यों कामिनी”॥
यदि भूल कर अनुचित किसी ने काम कर डाला कभी,
तो वह स्वयं नृप के निकट दण्डार्थ जाता था तभी।
अब भी 'लिखित मुनि' का चरित वह लिखित है इतिहास में,
अनुपम सुजनता सिद्ध है जिसके अमल आभास में॥
- पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 7)
- रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
- संस्करण : 1984
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