भारत-भारती / अतीत खंड / उपक्रमणिका

upakramnaika

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

भारत-भारती / अतीत खंड / उपक्रमणिका

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    हाँ, लेखनी! हृत्पत्र पर लिखनी तुझे है यह कथा,

    दृक्कालिमा में डूब कर तैयार हो कर सर्वथा।

    स्वच्छंदता से कर तुझे करने पड़े प्रस्ताव जो,

    जग जायँ तेरी नोंक से सोए हुए हों भाव जो॥

    संसार में किसका समय है एक-सा रहता सदा,

    हैं निशि-दिवा-सी घूमती सर्वत्र विपदा-संपदा।

    जो आज एक है अनाथ कल होता वही!

    जो आज उत्सव-मन है कल शोक से रोता वही!॥

    चर्चा हमारी भी कभी संसार में सर्वत्र थी,

    वह सद्गुणों की कीर्ति मानों एक और कलत्र थी।

    इस दुर्दशा का स्वप्न में भी क्या हमें कुछ ध्यान था,

    क्या इस पतन ही को हमारा वह अतुल उत्थान था!॥

    उन्नत रहा होगा कभी जो हो रहा अवनत अभी,

    जो हो रहा अवनत भी, उन्नत रहा होगा कभी।

    हँसते प्रथम जो पद्म हैं तम-पंक में फँसते वही,

    मुरझे पड़े रहते कुमुद जो अंत में हँसते वही॥

    उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियम एक अखंड है,

    चढ़ता प्रथम जो व्योम में गिरता वही मार्तण्ड है।

    अवनति ही हमारी कह रही उन्नति-कला,

    उत्थान ही जिसका नहीं उसका पतन ही क्या भला?॥

    होता समुन्नति के अनंतर सोच अवनति का नहीं,

    हाँ, सोच तो है जो किसी की फिर हो उन्नति कहीं।

    चिंता नहीं जो व्योम-विस्तृत चंद्रिका का ह्रास हो,

    चिंता तभी है जब उसका फिर नवीन विकास हो॥

    है ठीक ऐसी ही दशा हतभाग्य भारतवर्ष की,

    कब से इतिश्री हो चुकी इसके अखिल उत्कर्ष की।

    पर सोच है केवल यहाँ यह नित्य गिरता ही गया,

    जब से फिरा है दैव इससे नित्य फिरता ही गया॥

    यह नियम है, उद्यान में पक कर गिरे पत्ते जहाँ,

    प्रकटित हुए पीछे उन्हीं के लहलहे पल्लव वहाँ।

    पर हाय! इस उद्यान का कुछ दूसरा ही हाल है,

    पतझड़ कहें या सूखना, कायापलट या काल है!॥

    अनुकूल शोभा मूल सुरभित फूल वे कुम्हला गए,

    फलते कहाँ हैं अब यहाँ वे फल रसाल नए-नए?

    बस, इस विशालोद्यान में झाड़ या झंखाड़ हैं,

    तनु सूख कर काँटा हुआ, बस शेष हैं तो हाड़ हैं॥

    दृढ़-दुःख दावानल इसे सब ओर घेर जला रहा,

    तिस पर अदृष्टाकाश उलटा विपद्-वज्र चला रहा।

    यद्यपि बुझा सकता हमारा नेत्र-जल इस आग को,

    पर धिक् हमारे स्वार्थमय सूखे हुए अनुराग को॥

    सहृदय जनों के चित्त निर्मल कुड़क जाकर काँच-से,

    होते दया के वश द्रवित हैं तप्त हो इस आँच से।

    चिंता कभी भावी दशा की, वर्तमान व्यथा कभी-

    करती तथा चंचल उन्हें है भूतकाल-कथा कभी॥

    जो इस विषय पर आज कुछ कहने चले हैं हम यहाँ,

    क्या कुछ सजग होंगे सखे! उसको सुनेंगे जो जहाँ?

    कवि के कठिनतर कर्म की करते नहीं हम धृष्टता,

    पर क्या विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता?॥

    हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी,

    आओ, विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।

    यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं,

    हम कौन थे, इस ज्ञान को, फिर भी अधूरा है नहीं॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 2)
    • रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
    • संस्करण : 1984

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