भारत-भारती / अतीत खंड / हमारे पूर्वज

hamare purwaj

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

भारत-भारती / अतीत खंड / हमारे पूर्वज

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    उन पूर्वजों की कीर्ति का वर्णन अतीव अपार है,

    गाते नहीं उनके हमीं गुण, गा रहा संसार है।

    वे धर्म्म पर करते निछावर तृण-समान शरीर थे,

    उनसे वही गंभीर थे, वर वीर थे, ध्रुव धीर थे॥

    उनके अलौकिक दर्शनों से दूर होता पाप था,

    अति पुण्य मिलता था तथा मिटता हृदय का ताप था।

    उपदेश उनके शांतिकारक थे निवारक शोक के,

    सब लोक उनका भक्त था, वे थे हितैषी लोक के॥

    लखते थे अघ की ओर थे वे, अघ लखता था उन्हें;

    वे धर्म्म को रखते सदा थे, धर्म्म रखता था उन्हें।

    वे कर्म्म से हो कर्म्म का थे नाश करना जानते,

    करते वही थे वे जिसे कर्तव्य थे वे मानते॥

    वे सजग रहते थे सदा दुख-पूर्ण तृष्णा-भ्रांति से,

    जीवन बिताते थे सदा संतोष-पूर्वक शांति से।

    इस लोक में उस लोक से वे सुख पाते थे,

    हँसते हुए आते थे, रोते हुए जाते थे॥

    जिनकी पूर्व सुगंधि से इन्द्रिय मधुपगण थे हिले,

    सद्भाव-सरजित वर जहाँ पर नित्य रहते थे खिले।

    लहरें उठाने में जहाँ व्यवहार-मारुत लग्न था,

    उन्मत्त आत्मा-हंस उनके मानसों में मग्न था॥

    ये ईश-नियमों को कभी अवहेलना करते थे,

    सन्मार्ग में चलते हुए वे विघ्न से डरते थे।

    अपने लिए वे दूसरों का हित कभी हरते थे,

    चिंता-अपूर्ण, अशांतिपूर्वक वे कभी मरते थे॥

    वे मोह-बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे, स्वाधीन थे;

    संपूर्ण सुख-संयुक्त थे, वे शांति-शिखरासीन थे।

    मन से, वचन से, कर्म्म से वे प्रभु-भजन में लीन थे,

    विख्यात ब्रह्मानंद-नद के वे मनोहर मीन थे॥

    उनके चतुर्दिक-कीर्ति-पट को है असंभव नापना,

    की दूर देशों में उन्होंने उपनिवेश स्थापना।

    पहुँचे जहाँ वे अज्ञता का द्वार जाने रुक गया,

    वे झुक गए जिस ओर को संसार मानों झुक गया॥

    वर्णन उन्होंने जिस विषय का है किया, पूरा किया;

    मानों प्रकृति ने ही स्वयं साहित्य उनका रच दिया।

    चाहे समय को गति कभी अनुकूल उनके हो नहीं,

    हैं किंतु निश्चल एक से सिद्धांत उनके सब कहीं॥

    वे मेदिनी तल में सुकृत के बीज बोते थे सदा,

    परदुःख देख दयालुता से द्रवित होते थे सदा।

    वे सत्त्वगुण-शुभ्रांशु से तम-ताप खोते थे सदा,

    निश्चिन्त विन-विहान सुख की नींद सोते थे सदा॥

    वे आर्य्य ही थे जो कभी अपने लिए जीते थे;

    वे स्वार्थ-रत ही मोह की मदिरा कभी पीते थे।

    संसार के उपकार-हित जब जन्म लेते थे सभी,

    निश्चेष्ट होकर किस तरह से बैठ सकते थे कभी?॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 5)
    • रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
    • संस्करण : 1984

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