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कृष्ण-जन्म

krish.na-janm

लाल कवि

लाल कवि

कृष्ण-जन्म

लाल कवि

और अधिकलाल कवि

    छंद

    रचना रचिवे कौ मनु धायौ। महत्तत्व सो इहां कहायौ॥
    काल शक्ति के छोभित कीने। अहंकार उपज्यौ गुन लीने॥
    अहकार तहं त्रिबिध जनायौ। सात्विक राजस तामस गायौ॥
    तामस अहकार उपजाये। पाँचौं भूत पाँच गुन ल्याये॥
    शब्द स्पर्श रस रूप बनाये। गंध सहित गुन पाँच गनाये॥
    कान सबद सुनिवे कौ पाये। त्वचा परस के भेद बताये॥
    रसना स्वाद रसन के लीनै। रूप देखिये कौं दृग दीनै॥
    गंध ग्रहन नासिका लीनै। पाँच पाँच के भये अधीनै॥

    दोहा

    पाँच ज्ञानइन्द्रिय भये, पाँच स्वाद के हेत।
    पाँच भूत कौ जगत रचि, घेतन कियौ निकेत॥

    छंद

    चेतन तहां आपुही आये। सोरद्द कला रूप छबि छाये॥
    जल अगाघ चारहु दिस जोयौ। सेज बिछाइ शेष की सोयौ॥
    यह नारयन रूप कहायौ। ताकी नाभि कमल उपजायौ॥
    उपजे तहां चार मुखवारे। ब्रह्मा सृष्टि बनावनहारे॥
    ब्रह्मा अपनै मन तै कीनै। छहौ पुत्र तप के रस भीनै॥
    प्रथम मरीचि अत्रि पुनि जानौ। और अंगिरा उर में आनौ॥
    फिरि पुलस्त्य अरु पुलह बखानै। जे छटए वे क्रतु पहिचाननै॥
    इनतै उपजी सृष्टि तहां लौ। थावर जंगम जीव जहां लौ॥

    दोहा

     

    लोक देस रची, कही कौन सौ जाइ।
    तिन में ब्रजमंडल रच्यौ, रुचि सौ अति सुख पाइ॥

    छंद

     

    तहं बसुदेव नंद तपु कीनौ। तिन्है आइ दरसन प्रभु दीनौ॥
    मांग्यो बर यह दुहुन अकेलौ। सुत ह्वे नाथ हमारे खेलौ॥
    दयौ दुहुन को वर मन भायौ। लै अवतार आप इन आयौ॥
    तौ लगि आठ बीस जुग बीते। ह्वां पल के सह सांस न रीते॥
    बढ़े कालजमनादिक भारे। जरासंध से भूप अन्यारे॥
    तिनके दलनि भूमि भय भारी। पीड़ित ह्वै बिधि पास पुकारी॥
    धेनु रूप धरि रोवत आई। ब्रह्मा पीर भूमि की पाई॥
    महादेव अरु देवनि लैकै। छीरसमुद पर बोले जैकै॥

    दोहा

     

    तहँ अकासबानी सुनी, लख्यौ न कछु आकार।
    हौं आवत ब्रज नंद के, हरन भूमि कौ भार॥

    छंद

     

    अपने अंस देव लै जाही। बिलसै गोप जादवनि माही॥
    अरु अपने अंसन सुरनारी। हौंहि जादवन की अति प्यारी॥
    यह सुनि ब्रह्मादिक सुख छाये। अपनै अपनै लोकनि आये॥
    इत अवतार देवकी लीनौ। भोजवंस कौं भूपति कीनौ॥
    तिन्हैं ब्याहवे कौं मन भाये। सजि बरात बसुदेव सिधाये॥
    भयौ ब्याह दुहुं दिसि रस लीनै। गज रथ तुरग दाइजै दीनै॥
    बिदा भये बसुदेव प्रबीनै। पठवन चले कंस रस भीनै॥
    त्यौंही उठी गगन में बानी। सुनि रे मूढ़ महा अझानी॥

    दोहा

     

    जाहि पठावन जात तू कीनौ हियै हुलास।
    ताकौ सुत जा आठयौ, तातैं तेरो नास॥

    छंद

     

    यह सुनि कंस मलिन मन कीनौ। रस तै बिरस भयौ मन भीनौ॥
    रिस तैं भई अरुन दृग कोरै। विष जनु पियो अमृत के भौरे॥
    कढ़ी कृपान रोसरस छायौ। भगिनी के मारन कों धायौ॥
    ताकौ देखि अनी सब छोभी। गनत न दोष राज रास रस लोभी॥
    तहं बसुदेव विनय रस खोले। महामधुर मृदु बानी बोले॥
    भोजबंस भूपन तुम ऐसै। तुम लाइक नहि कर्म्म अनैसै॥
    जौ याके सुत तै भय जानहु। तौ यह बात हमारी मानहु॥
    अब याके जितने सुत ह्वैहैं। ते सिगरे तुम ही कौ दैहें॥

    दोहा

     

    फिरी कूरमत कंस की, अचिरज करौ न कोइ।
    कहा देहधारी करै, करता करै सो होई॥

    छंद

     

    होत सबै करता की कीनी। नृप की बिषम बुद्धि हर लीनी॥
    तबहि कंस यह बुद्धि बिचारी। ए बसुदेव भये हितकारी॥
    थापे पुत्र मीच ढिग ल्यावै। पै प्रतीत यह कैसे आवै॥
    तातैं इनै बंदी में दीजै। अपनै राजकाज सब कीजै॥
    तब बसुदेव बोलि ढिग लीनै। जकरि जंजीरन में धरि दीनै॥
    त्यौंही तहां देवकी राखी। गन्यौ न दोष राज अमिलाषी॥
    बालक छहक देवकी जाये। खग्ग खोलि ते सबै खपायै॥
    त्यौंही गर्भ सातये आये॥ शेष अंस बलभद्र कहाये॥

    दोहा

     

    गिर्यो गर्भ यह सुनत ही, फिर्यो चकित ह्वै कंस।
    घर्यो रोहिनी के उदर, जोग नींद सौ अंस॥

    छंद

     

    उदर रोहिनी के जो राख्यो। संकर्षन बल होतहि भाष्यौ॥
    गरभ आठयें आयौ नामी। सो बैकुंठ धाम को स्वामी॥
    सोभा धरी देवकी औरै। कछु न उपाइ कंस कौ दौरै॥
    मेरौ प्रान लैन यह आयौ। जो अकासबानी मुख गायौ॥
    त्यौं अपनै भट निकट बुलाये। तिन्हें कंस एक बचन सुनाये॥
    द्वारनि देहु किवारनि तारे। जे गजहू सौं टरै न टारे॥
    चौकिन सावधान ह्वै जागौ। लोभ मोह के रस मति पागौ॥

    दोहा

     

    यौं कहि कै अपनै महल, कंस गयौ सुख पाइ।
    सावधान ह्वैं कै सुभट, चौकिन बैठे जाइ॥

    छंद

     

    चौकिन बैठे सुभट घनेरे। लै बसुदेव कोठरिन घेरे॥
    आये विष्णु गर्भ में जानै। ब्रह्मादिक सब गाइ सिहानै॥
    भादौं वदि आठैं जब आई॥ बुध रोहिनी अधरात सुहाई॥
    वाही समै जनम हरि लीनौ। मात पिता कौ दरसन दीनौ॥
    संख चक्र गद पदम बिराजै। भुजनि चार आयुध छवि छाजै॥
    मनिमय मुकुट सीस पर सोहै। भकुटी बंक चित्त कौं मोहै॥
    जग तैं उदित अंग भुज राजै। ललित पीटपट जुगल बिराजै॥
    दीरघ दृग झलमलत अन्यारे। मुकतासुत सोहत अति भारे॥

    दोहा

     

    सुभग स्याम तन मुकुट अति, पीतवसन छबि देत।
    जनु घन उमयौ है मनौ, उड़गन तड़ित समेत॥

    छंद

     

    बहसि रूप बसुदेव निहारै। कोटि जामिनी तिमिर उसारै॥
    खुलै किवार दौर दिन दीनौ। द्वार पाल निद्रा बस कीनौ॥
    तब बसुदेव कह्यौ प्रभु प्यारे। खुले भाग अति आजु हमारे॥
    अदभुत रूप दृगनि हम देख्यौ। जीवन जनम सुफल करि लेख्यौ॥
    ये भय हमै कंस के भारे। उहि मेरे छह बालक मारे॥
    जो वह ख़बर तुम्हारी पैहै। तो निरदई पापमति लैहै॥
    अब तुमकौ केहि भाँति बचाऊँ। कौन ठौर यह रूप छिपाऊँ॥
    बालरूप तुमकौं करि पाऊँ। तो दुराइ गोकुल धरि आऊँ॥

    दोहा

     

    सुनत बोल वसुदेव के, बोले बिहँसि कृपाल।
    पूरब तप तै हम तुम्हैं, रूप दिखायौ हाल॥

    छंद

     

    यौं कहि बालिक रूप दिखायौ। बहसि रूप बेकुंठ पठायौ॥
    बाल रूप अच्छर जब कीनौ। तब वसुदेव गोद धरि लीनौ॥
    सोचत चौकीदार निहारे। गोकुल कौं बसुदेव पधारे॥
    जमुना बढी पार नहिं सूझे। मग बसुदेव कौन कौं बूझै॥
    सुत की प्रीति कंस भय भारी। जल में धस्यौ मीच अखत्यारी॥
    करि करुना जमुना मग दीनौ। पाइन उतरि पार वह लीनौ॥
    ताही समैं रैन रस भीनी। जोग नींद जसुदा उर लीनी॥
    चलि बसुदेव नंद घर आयौ। ठौर ठौर सौं उत्सव पायौ॥

    दोहा

     

    पुत्र धर्यो जसुदा निकट, कन्या लई उठाइ।
    फिर त्यौंही जमुना उतरि, मथुरा पहुंचै जाइ॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : छत्रप्रकाश (पृष्ठ 155)
    • संपादक : श्यामसुंदरदास वा. ए, कृष्णवल्देव वर्मा
    • रचनाकार : लाल कवि
    • प्रकाशन : नागरीप्रचारिणी सभा, काशी
    • संस्करण : 1910

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