हउं वरु बंभणु ण वि वइसु णु खत्तिउ ण वि सेसु।
पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि एहउ जाणि विसेसु॥
तरुणउ बूढउ बालु हउं सूरउ पंडित दिव्वु।
खवणउ वंदउ सेवहउ एहउ चिंति म सव्वु॥
देहहो पिक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि।
जो अजरामरु बंभु परु सो अप्पाण मुणेहि॥
देहहि उब्भउ जरमरणु देहहि वण्ण विचित्त।
देहहो रोया जाणि तुहुं देहहि लिंगईं मित्त॥
अत्थि ण उब्भउ जरमरणु रोय वि लिंगईं वण्ण।
णिच्छइ अप्पा जाणि तुहुं जीवहो णेक्क वि सण्ण॥
कम्महं केरउ भावडउ जइ अप्पाण भणेहि।
तो वि ण पावहि परमपउ पुणु संसारु भमेहि॥
अप्पा मिल्लिवि णाणमउ अवरु परायउ भाउ।
सो छंडेविणु जीव तुहुं झावहि सुद्धसहाउ॥
वण्णविहूणउ णाणमउ जो भावइ सब्भाउ।
संतु णिरंजणु सो जि सिउ तहिं किज्जइ अणुराउ॥
तिहुयणि दीसइ देउ जिणु जिणवरि तिहुवणु एउ।
जिणवरि दीसि सयलु जगु को वि ण किज्जइ भेउ॥
बुज्झहु बुज्झहु जिणु भणइ को बुज्झउ हलि अण्णु।
अप्पा देहहं णाणमउ छुडु बुज्झियउ विभिण्णु॥
न मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ, न वैश्य हूँ, न क्षत्रिय था अन्य भी मैं नहीं हूँ। उसी प्रकार पुरुष, नपुंसक या स्त्री भी मैं नहीं हूँ— ऐसा विशेष जान।
मैं तरूण हूँ, बूढ़ा हूँ, बालक हूँ, दिव्य पंडित हूँ, क्षपणक अर्थात् दिगंबर हूँ, वंदक या श्वेतांबर हूँ—ऐसा कुछ भी चिंतन तू मत कर।
हे जीव! देह को जरा-मरण देखकर तू भय मत कर। अपनी आत्मा को तू अजर-अमर परम-ब्रह्म जान।
जरा तथा मरण ये दोनों देह के हैं, विचित्र वर्ण भी देह के ही हैं और हे जीव! रोग को भी तू शरीर का ही जान, लिंग भी शरीर के ही हैं।
हे आत्मन्! निश्चय तू ऐसा जान कि इनमें से एक भी संज्ञा जीव की नहीं है। जरा या मरण, ये दोनों जीव के नहीं हैं। रोग भी नहीं हैं तथा लिंग या वर्ण भी नहीं है।
हे जीव! यदि तू कर्म के भाव को आत्मा का कहता है तो परमपद को तू नहीं पा सकेगा, बल्कि अब भी संसार में ही भ्रमण करेगा।
ज्ञानमय आत्मा के अतिरिक्त अन्य सब भाव पराए हैं, उन्हें छोड़कर हे जीव! तू शुद्ध स्वभाव का ध्यान कर।
जो वर्ण से रहित है, जो ज्ञानमय है, जो सद्भाव को भाता है, वही शिव है। अत: उसी में अनुराग करो।
तीन लोक में देव तो जिनवर ही दिखता है और जिनवरदेव में ये तीन भुवन दिखते हैं। जिनवर के ज्ञान में सकल जगत दृष्टिगोचर होता है, उसमें कोई भेद न करना चाहिए।
कोई कहता है कि हे जीवों! तुम जिन को जानो जानो! किंतु यदि ज्ञानमय आत्मा को देह से भिन्न जान लिया, तो भला! और क्या जानने का शेष रहा?
- पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 16)
- संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
- रचनाकार : मुनि राम सिंह
- प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
- संस्करण : 1992
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