भारत-भारती / अतीत खंड / यवनराजत्व
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जो हम कभी फूले-फले थे राम-राज्य-वसंत में,
हा! देखनी हमको पड़ी औरंगजेबी अंत में!
है कर्म का ही दोष अथवा समय की बात है,
होता कभी दिन है, कभी होती अँधेरी रात है॥
है विश्व में सबसे बली सर्वांतकारी काल ही,
होता अहो अपना पराया काल के वश हाल ही।
बनता कुतुबमीनार यमुनास्तंभ का निर्वाद है,
उस तीर्थराज प्रयाग का बनता इलाहाबाद है!
अत्याचार
जो हो, हमारी दुर्दशा का और अंत नहीं रहा,
हा! क्या कहें, कितना हमारा रक्त पानी-सा बहा!
हो कर मनुज, कृमि कीट से भी तुल्य हम लेखे गए;
दृष्टांत ऐसे बहुत ही कर्म विश्व में देखे गए॥
रहते यवन थे रक्त-रंजित तीक्ष्ण असि ताने खड़े,
चोटी, नहीं तो हाय! हमको शीश कटवाने पड़े!
जीते हुए दीवार में हम लोग चुनवाए गए,
बल से असंख्यक आर्य यों इसलाम में लाए गए॥
हा स्वार्थ-वश हमको अनेकों घोर कष्ट दिए गए,
कितने अवश अबला जनों के धर्म्म नष्ट किए गए,
घर में सुता के जन्म से होती बड़ों को थी व्यथा,
कुल-मान रखने को चली थी बालिका वध की प्रथा!
हा! निष्ठुरों के हाथ से सुर-मूर्तियाँ खंडित हुईं,
बहु मंदिरों की वस्तुओं से मस्जिदें मंडित हुईं।
जजिया सरीखे कर लगे, यह बात सिद्ध हुई सही—
जो प्राप्त हो परतंत्रता में दुःख थोड़ा है वही॥
प्रशंसा
इससे न यह समझो कि यों ही वह समय बीता सभी,
ऐसा नहीं है, उन दिनों भी था सु-काल कभी-कभी।
निज शत्रु तक के गुण हमें कहना उचित है सब कहीं,
सच को छिपाने के बराबर पाप कोई है नहीं॥
ऐसा नहीं होता कि सारी जाति कोई क्रूर हो,
संभव नहीं कि समाज भर से ही सदयता दूर हो।
अतएव ऐसे भी यवन सम्राट कुछ हैं हो गए—
जातीय-पड़े-कलंक को जो कीर्ति-जल से धो गए॥
अकबर
कम कीर्ति अकबर की नहीं सत्शासकों की ख्याति में,
शासक न उसके सम सभी होंगे किसी भी जाति में।
हो हिंदुओं के अर्थ हिंदू, यवन यवनों के लिए,
हठ, पक्षपात तथा दुराग्रह दूर उसने थे किए॥
निज राज्य में सुख शांति का विस्तार वह करता रहा,
अन्याय, अत्याचार को सब भाँति वह हरता रहा।
निज शत्रुओं के भी गुणों का मान उसने था किया,
विश्वासपूर्वक हिंदुओं को सचिव तक का पद दिया॥
भाषा और कवि
उस काल भाषा भी हमारी उच्च पद पाती रही,
हाँ, फ़ारसी-फरमान तक पर वह लिखी जाती रही।
श्रीसूर, तुलसी, देव, केशव कवि बिहारी-सम हुए;
जिनके अतुल ग्रंथकारों से भाव-रत्नोगम हुए॥
औरंगजेब
यदि पूर्वजों की नीति को औरंगजेब न भूलता—
होती यवन राजत्व पर विधि की न यों प्रतिकूलता।
गो-वध मिटाने को कहाँ वह पूर्वजों की घोषणा—
सोचो, कहाँ यह हिंदुओं के धर्म-धन की शोषणा!
अन्याय ऐसे, पुरुष होकर, हाय! हम सहते रहे,
करके न कुछ उद्योग विधि की बात हो कहते रहे।
हम चाहते तो एक होकर क्या न कर सकते भला?
पर ऐक्य का तो नाम लेते ही यहाँ घुटता गला॥
- पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 75)
- रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
- संस्करण : 1984
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