हिम के समीर, तेई बरसैं बिषम तीर
him ke samiir, te.ii barsai.n bisham tiir
सीत कौं प्रबल सेनापति कोपि चढ्यौ दल,
निबल अनल, गयौ सूरि सियराई कै।
हिम के समीर, तेई बरसैं बिषम तीर,
रही है गरम भौन कोनन मैं जाइ कै।
घूम नैंन बहैं, लोग आगि पर गिरे रहैं,
हिए सौं लगाइ रहैं नैंक सुलगाइ कै।
मानौ भीत जानि, महा सीत तैं पसारि पानि,
छतियाँ की छाँह राख्यौ पाउक छिपाइ कै।
शीत ऋतु में सर्दी बढ़ जाती है। ऐसा लगता है जैसे शीत रूपी प्रबल सेनापति ने क्रोध करके अपने दल के साथ चढ़ाई कर दी। आग कमज़ोर हो गई है और सूर्य को शीत लग गया है। बर्फ़ीली हवा तो ऐसी लगती है जैसे तीखे तीर छोड़ रही हो। गर्मी तो रही ही नहीं। वह तो जैसे भवनों के कोनों में जाकर छिप गई है। लोग सर्दी से बचाव करने के लिए आग जलाते हैं। उसके धुएँ से उनकी आँखों से आँसू निकल आते हैं। लोग सर्दी से परेशान होकर आग पर जैसे गिरे ही पड़ते हैं। वे उसके पास घिरकर बैठ जाते हैं। उसे वे अपने हृदय से ही लगाए लेते से प्रतीत होते हैं। आग उन्हें अच्छी लगती है। वे ऐसे लगते हैं मानो वे शीत से डरे हुए हैं और अपने हाथ फैलाकर आग को अपने सीने की छाया से रख लेना चाहते हैं।
- पुस्तक : कवित्त रत्नाकर (पृष्ठ 66)
- रचनाकार : सेनापति
- प्रकाशन : हिंदी परिषद् प्रकाशक, प्रयाग
- संस्करण : 1971
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