कौन को सरन जैये आपु त्यों न काहू पैयै
kaun ko saran jaiye aapu tyau na kahu paiyai
कौन को सरन जैये आपु त्यों न काहू पैयै,
सूनो सो चितैयै जग, दैया कित कूकियै।
सोचनि समैयै, मति हेरत हिरैयै, उर,
आँसुनि भिजौयै, ताप तैयै तन सूकियै।
क्यौं करि बितैयै, कैसै कहाँ धौं जितैयै मन,
बिना जान प्यारे कब जीवन तें चूकियै।
बनी है कठिन महा, मोहिं घनआनँद यौं,
मीचौ मरि गई आसरी न जित ढूकियै॥
हे आनंद के घन प्रिय, मैं आपके अतिरिक्त किसकी शरण जाऊँ। मुझे कोई ऐसा नहीं दिखता जो मेरी इस विपत्ति के प्रति उन्मुख हो, वो मुझसे सहानुभूति रखता हो। आपकी अनुकूलता के अभाव में अब सारा संसार मुझे शून्य, निस्तत्व, करुणा से रहित दिखाई देता है। अब मैं कहाँ जाकर पुकार करूँ, जिससे मेरी व्यथा दूर हो या हलकी हो। जब अन्यत्र मेरी समाई नहीं है तब अब केवल मैं अपने सोचों में ही समा रही हूँ, उन्हीं में लीन रहती हूँ। सोच को दूर करने के लिए बुद्धि की ओर देखने का यत्न करने पर उसे खोजने में स्वयं अपने को ही खो बैठती हूँ। छाती में इस खो जाने से जो नीरसता उत्पन्न होती है उसे सरस करने के लिए आँसुओं से उसे भिगोती हूँ। उस सरसता का अभाव उलटा ही होता है। विरह-ताप से तपती ही रहती हूँ। शरीर हरा होने के बदले सूखता ही जाता है। ऐसी स्थिति में भला दिन किस प्रकार बिताए जाएँ, मन को किस प्रकार और कहाँ जाकर हलका किया जाए। यदि आत्मघात कर वेदना से छुट्टी पाने का प्रयत्न करूँ भी तो बिना सुजान प्रिय के दर्शन के ये प्राण कैसे निकल सकते हैं। दूसरे मृत्यु भी तो मेरे निकट नहीं आती। वह भी तो मर गई है। उसमें छिपकर अपने कष्टों से निवृत्ति पा लेने का जो आसरा-भरोसा था वह भी नहीं रहा। इस प्रकार मेरे ऊपर ऐसी कठिन परिस्थितियाँ आ पड़ी हैं कि कुछ कहते नहीं बनता।
- पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 240)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
- संस्करण : 1972
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