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सिथिल सनेह कहै कौसिला सुमित्रा जू सों

sithil saneh kahai kausila sumitra ju son

तुलसीदास

तुलसीदास

सिथिल सनेह कहै कौसिला सुमित्रा जू सों

तुलसीदास

सिथिल सनेह कहै कौसिला सुमित्रा जू सों,

मैं लखी सौति, सखी! भगिनि ज्यौं सेई है।

कहैं मोहिं मैया, कहौं, 'मैं मैया भरत की,

बलैया लैहौं, भैया! तेरी मैया कैकेयी है'॥

तुलसी सरल भाय रघुराय माय मानी,

काय-मन-बानी हूँ जानी कै मतेई है।

बाम बिधि मेरो सुख सिरिस सुम सम,

ताको छल-छुरी कोह-कुलिस लै टेई है॥

कौशिल्या (कैकेई के प्रति) प्रेम से शिथिल होकर सुमित्रा जी से कहती हैं—हे सखी! मैंने कैकेयी के साथ कभी सौत का सा व्यवहार नहीं किया, सदा बहन की भाँति सम्मान किया है। (जब) रामचंद्र मुझे माँ कहते थे (तब) मैं उनसे कहती थी कि भैया, मैं तुम्हारी बलैया लेती हूँ, मैं तुम्हारी माँ नहीं हूँ; मैं तो भरत की माँ हूँ; तुम्हारी माँ कैकेयी हैं। तुलसीदास कहते हैं कि सरल स्वभाव वाले रामचंद्र कैकेयी को ही माँ मानते थे, उन्होंने तन-मन-वचन से भी कभी उन्हें विमाता करके नहीं जाना। किंतु विधाता मेरे प्रतिकूल हैं और मेरा सुख सिरिस के फूल के समान (कोमल) है। उसको काटने के लिए कैकेयी ने अपनी छल-रूपी छुरी को क्रोध-रूपी वज्र पर रगड़कर तेज किया है।

स्रोत :
  • पुस्तक : कवितावली (पृष्ठ 25)
  • संपादक : देवीनारायण द्विवेदी
  • रचनाकार : तुलसीदास
  • प्रकाशन : एस.बी.सिंह, काशी-पुस्तक-भंंडार, बनारस
  • संस्करण : 1999

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