नीके न्हाइ धोइ धूरि पैठो नेकु बैठो आनि
nike nhai dhoi dhuri paitho neku baitho aani
नीके न्हाइ धोइ धूरि पैठो नेकु बैठो आनि,
धूरि जटि गई धूरिजटी लौं भवन में।
पैन्हि पैठो अबर सुनिकर्यौ दिगंबर ह्वै,
दृग देखो भाल में अचंभो लाग्यौ मन में॥
जैसो हर हिमकर धरे औ गरे गरल,
भारी घरु डरु बरु छाँड़यौ एक खन में।
देखे दुति ना परत पाप रेते पा परत,
सापरे ते सुरसरि साँप रेंगे तन में॥
स्नान करके शंकर भगवान धूलि से सराबोर हो जाते हैं। उनकी जटाओं में लिपटी हुई धूलि उनके भवन कैलाश पर्वत तक चली गई है। भवन के मालिक शंकरजी की जटाओं की धूलि बर्फ़ के रूप में कैलाश पर्वत पर जमकर उसकी शोभा बढ़ा रही है। वहीं वे भगवान शंकर अंबर रूपी वस्त्र पहने हुए बैठे थे लेकिन वे दिगंबर (नग्न) होकर के निकले। भाव यह है कि उन्होंने समस्त आकाश को अपने शरीर पर धारण कर रखा है, फिर भी वे दिशाओं के वस्त्र वाले ही प्रतीत होते हैं। अर्थात् उनके दसों दिशाएँ वस्त्र रूप में लिपटी हुई हैं। कवि कहता है कि मैंने उनके मस्तक पर चंद्रमा विराजित देखा तब मुझे मन में अचरज होने लगा। वह आश्चर्य था कि निर्वस्त्र शंकर अपने सिर को दूज की चंद्रकला से सजाकर कौन-सी विशेष सज्जा का आनंद लेते होंगे। जैसे शिव सिर पर चंद्रमा धारण किए हुए हैं, उसके विपरीतधर्मी कालकूट को उन्होंने अपेन गले में धारण कर रखा है। अर्थात् शंकर भगवान ने देवता और दानवों की प्राण-रक्षा के लिए समुद्र मंथन से निकले विष का पान किया था। शंकर ने अपना महान घर हिमालय और एक क्षण में त्याग दिया था। यह प्रसंग कवि द्वारा उस समय का संकेत दिलाता है जब वे तपस्या करने हेतु हिमालय पर गए थे। पर्वतों के राजा ने अपनी पुत्री पार्वती को इनके पास सेवा हेतु भेजा था। उस समय योगीराज शंकर भवन एवं अपना वैभव आदि छोड़कर चले गए थे। कवि कहता है कि शंकर भगवान का दिव्य रूप ऐसा है कि उसकी द्युति को हमारी आँखें नहीं देख सकती लेकिन शिव कृपालु इतने हैं कि भक्तजनों के पापों को रेत के समान दूर कर देते हैं। उसी प्रकार, जिस प्रकार वस्त्रों में लगी धूलि झड़कर हट जाती है। भगवान शंकर ने अपने बदन पर पापों को धोने वाली गंगा और साँप धारण कर रखे हैं।
- पुस्तक : आलम ग्रंथावली (पृष्ठ 89)
- संपादक : विद्यानिवास मिश्र
- रचनाकार : आलम
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2015
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