गरल-गुमान की गराबनि दसा को पान
garal guman ki garabani dasa ko pan
गरल-गुमान की गराबनि दसा को पान,
करि-करि द्यौस-रैति प्रान घट घोटिबो।
हेत-खेत घूरि चूरि-चूरि साँस, पाँव राखि,
बिष समुदंग-बात आगें डर ओटिबो॥
जान प्यारे जौ न मन आनैं तो अनंदघन,
भूलि तू न सुमिरि परेखे चख चोटिबो।
तिन्है यों सिराति छाती तोहि बें लगति ताती,
तेरे बाँटे आयो है अँगारनि पै लोटिबो॥
विष के अभिमान को भी गला देने वाली विरह की दशा का रात-दिन पान कर-करके (चुपचाप सहते रहकर) प्राणों को शरीर में घोट दिया जा रहा है। इतने पर भी प्रेम के रणक्षेत्र की धूलि में अपनी साँसों को चूर्ण कर-करके मिलाया जा रहा है। फिर भी पीछे हटने का नाम नहीं, अपितु डटकर परमाकुलता के विषैले बाणों को छाती पर सहना है। यदि इस प्रकार महाविष पी जाने और विष-बाण सहने पर भी प्रिय सुजान आनंद के मेघ तुझे अपने मन में नहीं ले आते तो तू उनके कटाक्ष-पात से होने वाले आघात को व्यथा का पछतावा ध्यान में लाना भूल जा। इससे तो केवल पछतावा ही हाथ लगेगा। क्योंकि इस प्रकार दूसरों को आहत करने में उनकी तो छाती ठंडी होती है और तुझे उस आघात से संताप पहुँचाता है। तेरी भी छाती ठंडी हो ऐसा तेरे भाग्य में नहीं। तेरे भाग्य में तो अँगारों पर लेटना ही बदा है। उन्हें सुख भोगना और तुझे दु:ख भोगना है।
- पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 221)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
- संस्करण : 1972
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