त्रिबली तरंगिनि निकट नाभि हद तट

triblii tara.ngini nikaT naabhi had taT

देव

देव

त्रिबली तरंगिनि निकट नाभि हद तट

देव

और अधिकदेव

    त्रिबली तरंगिनि निकट नाभि हद तट,

    रोमराजी वन धँसि मुकत अन्हात हैं।

    नेह नगरी मैं गुन गेह उर ऊँची पौरि,

    देव कुच कंचन के कलस लखात हैं।

    लोचन दलाल ललचावत बटोहिन कौ,

    लाल चलि देखौ लाल मोलनि लहात हैं।

    जोवत बज़ार बैठ्यो जोहरी मदन सब,

    लोगनि को हीरा वाके हाथ ह्वै बिकात हैं॥

    उस बाला की त्रिबली में तीन बल पड़े हुए हैं, जिसके निकट नाभि है और उस नाभि के किनारे रोमावली वन की भाँति फैली हुई है। जब यह बाला नहाती है तब यह रोमावली उस नाभि में धँस जाती है। देव कहते हैं यह युवती स्नेह की नगरी है, जिसमें गुणों के घर में वक्ष सुशोभित हो रहे हैं। उसके नेत्र रूपी दलाल बटोहियों को ललचाकर मोल ले लेते हैं अर्थात् जिस प्रकार बाज़ार में दलाल ग्राहकों को अपनी बातों में फँसा लेते हैं, उसी प्रकार इस नवयौवना के नेत्र रूपी दलाल रसिकों को अपनी बातों में फँसा लेते हैं। उस बाला के यौवन रूपी बाज़ार में कामदेव रूपी जौहरी बैठा हुआ है जो लोगों के हीरे रूपी हृदय को परखता है और लोग अपने हीरे रूपी हृदय को उसके हाथ बेच बैठते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : देव और उनका रस विलास (पृष्ठ 126)
    • संपादक : डॉ दीनदयाल
    • रचनाकार : देव
    • प्रकाशन : नवलोक प्रकाशन
    • संस्करण : 2004

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