लाजनि लपेटि चितवनि भेद-भाय-भरी
lajani lapeti chitawni bhed bhay bhari
लाजनि लपेटि, चितवनि भेद-भाय-भरी,
लसति ललित लोल चख तिरछानि मैं।
छवि को सदन गोरो भाल बदन, रुचिर,
रस निचुरत मीठी मृदु मुसक्यानि मैं।
दसन-दमक फैलि हमें मोती माल होति,
पिय सों लड़कि पेम-पगी बतरानि मैं।
आनंद की निधि जगमगति छबीली बाल,
अंगनि अनंग-रंग ढुरि मुरि जानि मैं॥
कवि घनानंद कह रहे हैं कि उस नायिका के चंचल नेत्रों के तिरछेपन में प्रेम के रहस्यमय गूढ़ भावों से परिपूर्ण और लज्जा के आवरण से आच्छन्न सुंदर चितवन शोभा दे रही है। अर्थात् नायिका जब संयोग की इच्छा से प्रियतम की ओर देखती है तो हृदय के अंतर्गत काम-भावना से एक ओर तो उसके नेत्र तिर्यक् हो जाते हैं और दूसरी ओर वह लज्ज्वश प्रियहतम को ठीक से देख भी नहीं पाती है। उसका गौरवर्णी मुख शोभा का घर है, उसका मस्तक सुंदर है और उसकी मधुर मुस्कान से रस टपक पड़ता है अर्थात् उसकी मंद-मंद मीठी मुस्कान प्रेम रस से लबालब भरी हुई है और ऐसा लगता है जैसे उनसे रस छलक रहा हो। जब वह हाव-भाव और चपलता के साथ अपने प्रियतम से प्रेम-पूर्ण बातें करती हैं तब उसके दाँतों की चमक, उसकी छाती पर फैलकर मोती की माला-सी बन जाती है। जब वह इधर-उधर झुकती है अथवा मुड़ती है तो उसके अंग-प्रत्यंग से ऐसी कामजन्य छटा उत्पन्न होने लगती है जिसके कारण वह अनंत आनंदमई और शोभाशाली प्रेमिका जगमगाने लगती है। अभिप्राय यह है कि अपने अंगों को मस्ती से संचालित करने या मोड़ने में उसका शरीर जिन कामोद्दीन चेष्टाओं से भर उठता है, वे हृदय में आनंदातिरेक को जन्म देने वाली होती हैं।
- पुस्तक : घनानंद कवित्त (प्रथम आनन) (पृष्ठ 60)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र ‘शास्त्री’
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान
- संस्करण : 1972
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