ज़ैबुन्निसा : तीन और कविताएँ
zaibunnisa ha teen aur kawitayen
नदी
ऐसी बुझती है आग अचानक
मत दो हवा, ज़ैबुन्निसा
राख उड़ेगी, नाहक़ धुआँ फैलेगा
और अंधा हो जाएगा सारा उजास
अभी कल ही तो खड़ी थी तुम
उसी झरने के पास
कहने लगी : देखो देखो
जहाँ टूटता है झरना पछाड़े खा-खाकर
पहचानों मेरा चेहरा : वह मैं हूँ
वहीं जहाँ से उठता है वह फेनिल झाग
और जो इंद्रधनुष फैला है जलवक्ष पर
आँख मूँदकर देखो
मेरी ही हैं उसके सतरंगी कमान
जलपक्षी की तरह उड़ो ज़ैबुन्निसा
आँख जब भी खुलेगी
देखोगी न जल है न झरना
और न नदी
हर नदी ऐसे ही सूखती है ज़ैबुन्निसा
स्वप्न की तरह अचानक।
करबला
ज़ैबुन्निसा आओ,
उतारो मुझे गले से तौक़ की तरह
पहना भी तो गया था मैं शौक़ शौक़ में
ज़ौक़ की तरह।
चलो ज़ैबुन्निसा
छिपाओ मुझे औरत की शर्म की तरह
सुनो ज़ैबुन्निसा
ताज़िए की तरह सिराओ मुझे
उस करबला में
जो कहीं नहीं है।
घर
परिंदों के कने पेड़ हैं
बस्तर, भोपाल, दिल्ली
दुनिया भर में हर कहीं
अपना ही कोई ठीया नहीं
न ज़र न ज़मीन
न साँस भर हवा, न आँख भर आकाश
चलो ज़ैबुन्निसा, अब और मुल्तवी मत करो
जहाँ और जिस हाल भी है
उस जाल को लेकर उड़े
और चलकर पेड़ हो जाएँ
कहीं भी।
- पुस्तक : साक्षात्कार 197-198 (पृष्ठ 66)
- संपादक : ध्रुव शुक्ल
- रचनाकार : शानी
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