चूँकि ईमानदारी एक अल्पसंख्यक गुण है
और ईमानदार लोग कम हैं,
उनसे यह उम्मीद करना बेमानी है
कि वे दुनिया को बदल सकते हैं :
इतने कम लोग तो अपना पड़ोस तक नहीं बदल सकते,
दुनिया तो बहुत दूर की बात है।
इसका मतलब यह है
कि दुनिया बदलने का काम बेईमानों के मत्थे जाता है
जिन्हें, ज़ाहिर है, ऐसा करने में कोई दिलचस्पी नहीं होती।
कुल मिलाकर हालत यह बनती है
कि ईमानदार दुनिया बदल नहीं सकते,
बेईमान बदलना नहीं चाहते।
ईमानदारों की संख्या बढ़ाना
एक दीर्घकालीन अभियान है
जो हमारे जीवन भर पूरा होने से रहा,
विकल्प यही बचता है
बेईमानों को किसी तरह राज़ी या प्रेरित किया जाए
कि वे दुनिया बदलने में कुछ दिलचस्पी लें।
बेईमानों से इस मामले में संवाद शुरू करने में,
ज़ाहिर है कि बड़ी हिचक है।
फ़िलवक़्त यह बहस बेकार है कि
कि हम ख़ुद क्या हैं : अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक?
लेकिन क्या हम सदियों से यही कोशिश कर रहे
स्वप्नहारे लोग नहीं हैं,
जो दुनिया बदलने का सपना
बेकार मानकर घूरे पर फेंकने के पहले
एक बार ठिठककर सोच भर रहे हैं
कि क्या मनुष्यता के इतिहास में सचमुच
वह मुक़ाम आ चुका
जब दुनिया बदलना आदमी के हाथ में नहीं रहा,
न उसके बस में?
- रचनाकार : अशोक वाजपेयी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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