बीत चला है पतझड़, चिड़ियाँ चली गई हैं
गर्म प्रदेशों को, वन की डालें नंगी हैं,
पड़ा हुआ मैदान सपाट, खड़ी है अब भी
एक खेत में फसल, अकेले एक खेत में।
इसे देखकर मैं उदास होता,
विचार में पड़ जाता हूँ—
निश्चय बालें इसकी आपस में काना-फूसी करती हैं
यह पतझड़ की हवा, कि इसके कर्कश स्वर से कान पक गए।”
ऊब गई मैं बार-बार धरती के ऊपर शीश झुकाते
और गिराते और मिलाते मिट्टी में मोती से दाने।
ये घोड़े जंगली हमें भारी टापो से ख़ुद कुचलकर चल देते हैं।
ये खरगोश चलाते अपने पंजे हम पर।
होश उड़ाने वाले सर्द हवा के झटके।
जो भी पक्षी आता अपनी चोंच मारकर दाने चार गिरा लेता है।
भला आदमी कहाँ रह गया?
बात हुई क्या?”
निकली सबसे बुरी फसल क्या इसी खेत की?
उगी, बढ़ी दाने लाई—क्या कमी रह गई?
ऐसी कोई बात नही है।
“सबसे अच्छी फसल हमी हैं।
कितने पहले हम बालें भर गईं, झुक गया डंठल-डंठल।
इसीलिए क्या उसने धरती जोती-बोई
उपज हमारी पतझड़ की झंझा में बिखरे?”
इन प्रश्नों का दर्द-भरा उत्तर लेकर के
गर्द-भरे दो झोंके आए
काम तुम्हारा करने वाला चला गया अब।
खेत जोतते-काते उसने कब जाना था,
वक़्त काटने का आएगा, वह न रहेगा।
अब वह खा-पी नहीं सकेगा—उल्टे, कीड़े
उसकी छाती को खा-खाकर चलनी करते,
वह मुँह खोल नहीं पाता है।
और बनी थी जिन हाथों से क्यारा-क्यारी
अब वे सूख हुए हैं लकड़ी।
आँखों पर ऐसी झिल्ली है, देख न पाती।
उसकी वाणी, जी उसके अवसादो को मुखरित करती थी,
मूक हो गई।
जो हलवाहा हल का हत्था कसकर थामे
खेत जोतते सोचा करता,
और सोचते जोता करता,
दबा हुआ मिट्टी में सड़ता!
- पुस्तक : चौंसठ रूसी कविताएँ (पृष्ठ 104)
- रचनाकार : निकोलाइ नेक्रासोव
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 1964
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