हो गई थी साँझ, कंकरीली सड़क सूनी पडी थी,
बीद, अंधे पादरी, ने वस्त्र जो थे पास पहने,
एक लड़के की उँगलियों का सहारा लिया,
नंगे पाँव ही वह चल पड़ा उपदेश देने,
हवा में उसका फटा ढीला लबादा लगा उड़ने।
जंगली निजन डगर अब और सूनी और भयानक हो चली थी—
यहाँ झाखड़, वहाँ कोई ठूठ, कोई पेड़ कद्दावर, पुराना,
इधर टीला, उधर कोई बड़ी-सी चट्टान
आगे को झुकी, काई ढकी, जैसे पकी
अपनी उमर बतला रही हो।
और लड़का थक गया था। या दिखाई दे गई थी
उसे मीठे बेर की झाड़ी निकट ही।
या कि अंधे पादरी से महज एक मज़ाक करने की गरज से
कहा उसने, मैं ज़रा आराम कर लूँ,
आपके उपदेश देने का समय अब आ गया है,
शुरू कर दें अगर चाहें।
ग्राम वालों ने पहाड़ी से लिया था देख हमको इधर आते,
औरतें बैठी प्रतीक्षा कर रही हैं,
सड़क के दोनों तरफ़ हैं खड़ी बच्चों की कतारें,
और कितने बड़े-बूढ़े!—आप इनसे
आसमानी बाप का गुणगान करिए,
और उसके पुत्र का, जो हम सबों का पाप धोने के लिए
बलि हो गया था।
पादरी के झुर्रियों से भरे चेहरे पर अचानक चमक आई,
जिस तरह दृढ़ वक्ष गिरि का चीरकर के
बंद जल का स्रोत बाहर निकल पड़ता,
पादरी के सूखते-से कंठ से उद्भूत
वाणी प्रेरणामय लगी बहने।
बैठ उसकी जीभ पर क्या आस्था बोली स्वयं थी?
आँख अंधी पढ़ रही थी क्या गगन के पार का अभिलेख कोई?
श्वेत केशों से घिरा चेहरा नबी की भाँति ऊपर को उठा था,
और उसके अंध कोयों में छलकते अश्रुकण थे झलमलाते।
चाँद पीला पर्वतों के पार अब ढलने लगा था,
स्वर्णवर्णी लालिमा पूरब दिशा से झाँकती थी,
रात-उतरी ओस निचली घाटियों में झड़ चली थी,
किंतु अंधा पादरी तन्मय अनवरत बोलता ही जा रहा था।
हाथ उसका दवा सहसा और हँसते हुए लड़के ने कहा,
बस करो। अब सब जा चुके हैं—चलें हम भी।'
पादरी रुक गया, उसने मौन ही गर्दन झुकाई
और तब,
जैसे कि चारों ओर भारी भीड़ ही हो,
जंगली जड़ पत्थरों से साथ उठ
आमीन! की आवाज़ आई।
- पुस्तक : चौंसठ रूसी कविताएँ (पृष्ठ 96)
- रचनाकार : याकोव पोलोस्की
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 1964
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