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वह

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उपासना झा

और अधिकउपासना झा

    वह देखती है

    भोर का सोंधा आसमान

    और गरिमा में उगते सूर्य को

    धीमे क़दमों से टहलती हुई

    कुछ रुककर देखती है

    गली में सोए हुए कुत्ते

    उनकी दुलार भरी नींद

    सुनती है पाखियों का कलरव

    हवा बिखेर रही है उसके केश

    बाँधती है हाथ उठा

    अन्यमनस्क मन उसका

    उड़ा-उड़ा जाता है

    उसे लग रहा है सब कुछ श्रीयुक्त

    उसकी अड़हुल-सी आँखों में

    रतजगे की लाली है

    वह प्रेम में है...

    ***

    आँगन में रही है

    नीम के पत्तों से छनकर धूप

    खुले नल से गिर रहा है पानी

    भरकर छलक रही बाल्टी

    छलक रहा है मन उसका

    परात भर बासी कपड़े

    धो रही, गाती है कोई गीत

    अपनी ही चूड़ियों की खनक पर मुग्ध

    बार-बार पखारती

    धुले हुए कपड़ों को

    कमर दर्द याद दिलाता है

    बग़ल में पड़ा लकड़ी का पीढ़ा

    देती है मन-ही-मन मुस्काते

    कोई मीठी गाली

    वह प्रेम में है...

    ***

    चूल्हे पर गिर रहा है उबलकर दूध

    भात गलकर हो चुका है मांड

    खड़ी है वह बरामदे में

    खंभे से सटकर

    देखती है तिरछी गिरती बारिश

    हाथ बढ़ाकर छू लेती है

    कल्पना में प्रिय के होंठ

    बेध्यानी में

    आगे बढ़कर आँखें मूँदे

    रोपती है चेहरे पर पानी की बूँदों को

    एक डेग पीछे हो जाती है

    सिहरकर...

    शीतल पड़ती है उसकी काया

    जलती है उसकी देह...

    वह प्रेम में है...

    ***

    पंचधातु की थाली में

    हल्दी, कुंकुम, दूब-तुलसी लेकर

    जा रही ठाकुरबाड़ी

    एड़ियों में शोभित है लाल-रंग

    त्वरा से झनकते हैं पाँव के नूपुर

    प्रातः वेला के उनींदे वृक्ष

    आँख मलते देखते अनुराग से

    सद्य:स्नाता छब उसकी निर्दोष

    निष्कलुष करती धरा को

    तुलसी में नहीं देती है जल

    पाकड़-वृक्ष को कर रही प्लावित

    दुपहरी में जो अपने अंक में

    सुलाएगा प्रिय को

    पूजती है कुएँ की बाट को

    वयोवृद्ध पुजारी का कंठ है अवरुद्ध

    अस्फुट ध्वनि में बोलता है : माँ

    वह प्रेम में है...

    ***

    वह देखती है

    घर की छाजन से टपकता पानी

    खिड़की के पल्ले पर

    मोतियों-सी बूँदें

    अँजुरी आगे कर लोकती है

    स्वर्ग से उतर रहा जल

    आँगन में उतर आई है

    उसके कमला नदी

    रात भर बैठकर सुना है उसने

    मेघों का मल्हार

    चेहरे पर कौंधती है

    बीती रात की कोई स्मृति

    रक्ताभ हैं उसके कपोल

    बरस रहा है आषाढ़ का मेघ

    वह प्रेम में है...

    स्रोत :
    • रचनाकार : उपासना झा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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