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हवाएँ चुप नहीं रहतीं

hawayen chup nahin rahtin

वेणु गोपाल

वेणु गोपाल

हवाएँ चुप नहीं रहतीं

वेणु गोपाल

हवाओं ने सरापा समझा

अँधेरे को। झूठ नहीं कहा था उसे। लेकिन

अँधेरे ने ग़लत समझा हवाओं को। क्योंकि

उजाले को

सच कहा था उन्होंने।

दिन था।

तो भी अँधेरा था। चंद कमरों में। चंद

जिस्मों में। चंद शब्दों में। चंद

वादों में। और चंद

भविष्यवाणियों में। घना होता हुआ। लेकिन

हवाओं ने इनकी नहीं

बल्कि सन्नाट सड़कों और उनसे जुड़े

गुंजान आँगनों-मैदानों और खेतो की

बात कही थी। जहाँ रात थी।

तो भी उजाला था। हवाएँ

जहाँ-जहाँ से सनसनाती गुज़री थीं

लौटकर

वहाँ-वहाँ के संस्मरण सुनाए थे। आज भी

सुनाती हैं। हवाएँ

कभी चुप नहीं रहतीं। आगामी सुबह

के रूप-बखान में मुब्तिला

वे

इस वक़्त भी सक्रिय हैं। चंद

अटूट उम्मीदों में।

स्रोत :
  • पुस्तक : हवाएँ चुप नहीं रहतीं (पृष्ठ 21)
  • रचनाकार : वेणु गोपाल
  • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
  • संस्करण : 1980

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