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विलोम

wilom

विष्णु खरे

कहना मुश्किल है

कि हर वह व्यक्ति

जिसके लिए शोक-सभा की जाती है

उस शोक का हक़दार होता है भी या नहीं

जो शोक उसके लिए मनाया जाता है वह सच्चा होता है या नहीं

और जो उसके लिए शोक मना रहे होते हैं उसमें से कितने वाक़ई शोकार्त होते हैं

और कितने महज़ राहत महसूस करते हुए दुनियादार

बहरहाल, जैसी भी रही हो उस एक ज़िंदगी को डेढ़-दो घंटों में निपटा देने के बाद

दो मिनट का वह वक़्फ़ा आता है जब मौन रखा जाना होता है

मैनें अक्सर देखा है यह एक सौ बीस सेकंड

हर सिर नीचा किए या शून्य में देखते खड़े हुए शोकार्त पर भारी पड़ते हैं

लगता है तभी उनकी आत्मा का साक्षात्कार होता है दिवंगत और मृत्यु से

अपने भीतर की ख़ला से

तुम नहीं जानते थे कि मौत इतने लोगों को तबाह कर सकती है

वे कनखियों से देखते हैं कलाई या दीवाल-घड़ियों को या आस-पास खड़े अपने जैसे लोगों को

या मंच पर खड़े खुर्राट पेशेवर शोकार्तों को

कि वे अपने शरीर की किसी भंगिमा से संकेत दें और अंततः सभा समाप्त हो

जबकि यह दो मिनट का मौन

उन्होंने मृतक के पूरे जीवन भर उसके कहे-किए पर रखा होता है

और अब जब कि वह नहीं रहा

तो सुविधापूर्वक बचे-खुचे इनके जीवनपर्यंत रखा जाएगा

मेरे साथ यह विचित्र है

कि अगर किसी शोक-सभा में जाता भी हूँ

तो मंच पर और मेरे आस-पास आसीनों को देखते हुए उन पर

और उनके बीच बैठे ख़ुद पर और दिवंगत आत्मा पर बल्कि सारे ज़माने पर

लगातार खिलखिलाने या कुछ अभद्र कहने की असभ्य इच्छा होती रहती है

जिसे अपने निजी जीवन की चुनिंदा त्रासदियों को सायास याद करके ही दबा पाता हूँ

मेरा शोक-प्रस्ताव यह होता है कि

बहुत रख चुके

अब हम इस इंसान की स्मृति में एक सेकंड का भी मौन नहीं

बल्कि चुप्पी के सारे विलोम रखें और वह भी महज़ दो मिनट के लिए और यहीं नहीं

यानी आवाज़ बात बहस ध्वनि कोलाहल शोरगुल रव गुहार आव्हान तुमुलनाद बलवा बग़ावत चारसू

स्रोत :
  • रचनाकार : विष्णु खरे
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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