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विलायती धूप

wilayati dhoop

वरिंदर परिहार

वरिंदर परिहार

विलायती धूप

वरिंदर परिहार

और अधिकवरिंदर परिहार

    छुट्टी का दिन

    आराम-कुर्सी पर बैठा

    विलायती धूप तापते सोच रहा

    अपने हाथों लगाए

    फूलों का सुख पाता हूँ, भोग रहा हूँ

    पत्नी मेरे लिए रसोई में गई

    गिलास लेने लैमोनेड का

    उसकी ख़ाली पड़ी कुर्सी की तरफ़ देखता

    मैं व्यर्थ, यों ही चिंता में डूबा सोचता हुआ—

    अभी-अभी गंजे शैतान

    लकड़ी की दीवार फाँदकर

    उतर आएँगे मेरे बाग़ में

    घास के कोमल तिनकों पर

    अपने बोझिल, बूट टिकाकर, भार से

    फूलों को रौंदते

    बढ़ आएँगे मेरी तरफ़

    अँगुठियों में उकेरे स्वस्तिक को

    बारी-बारी दाग देंगे मेरे माथे पर

    कपाट से सिसकता-सटकता लहू

    फिर शांत देर तक

    सफ़ेद मेज़ पर

    कुछ लिखता रहेगा

    वे गंजे शैतान

    रसोई में जाकर

    मेरी पत्नी को कर आएँ अपमानित

    आशंका है

    वे मेरी बेटियों के

    प्ले-रूम में जा घुसें

    दीवारों पर पटक-पटक

    उन्हें लहूलुहान कर आएँ

    शायद, वे मेरे बाग़ की

    धूप को

    चुराकर ले जाएँ

    जो मुश्किल से

    समंदरों की सरहदें पार करती

    मेरे बाग़ में अभी आई ही थी

    संभव है

    मैं वैसे ही कुर्सी में धँसा रहूँ

    लुटती हुई धूप को देखता एकटक

    कुछ कर ही पाऊँ

    संभव है

    यह सब

    मेरे ख़्वाबों-ख़्यालों की बातें

    कल्पना हों

    मेरे सामने सफ़ेद मेज़ पर

    मेरे गर्म रक्त से लिखी

    कोई आयत

    दोहा

    या चौपाई नहीं

    वहाँ तो

    शीत लैमोनेड का

    गिलास पड़ा है

    प्ले-रूम से बच्चों के चहकने की

    आवाज़ रही है

    पत्नी बैठी सामने मुस्कुरा रही है

    मेरी सोच, कल्पना से बेख़बर धूप

    पूरे बाग़ में अभी तक

    वैसे ही चिलचिला रही है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 342)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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