तुम्हारे होने पर कभी ध्यान ही नहीं गया
उस संगीत पर जो किचेन में गैस पर रखी
पतीली में खदबदाता था
मैंने छत के गमलों में लगे फूलों की महक तक
समेटे रखा अपनी सूँघ का दायरा
और नाक़द्री की उस ख़ुशबू की
जो खाना बनते वक़्त पतीली से निकलती है
स्कूल से लेट होने पर आए तुम्हारे फ़ोन पर
झल्लाते हुए तुम्हारी फ़िक्र को अनदेखा किया
रात में चाय की चुस्कियों के साथ लिखते हुए
तुमसे कभी नहीं कहा
इन कविताओं के निर्माण में तुम्हारी नींद भी शामिल है
ओह मैंने तुमसे बहुत कुछ नहीं कहा
शायद प्यार जताने का हुनर मुझे आया ही नहीं
मुझे कवियों की तरह
आपबीती को जगबीती बनाने का हुनर भी नहीं आया
मेरी भाषा कही और अनकही के बीच
बिन माँझी नाव बनी हिचकोले खाती रही
तुम्हें वेलेंटाइन पर कभी गुलाब नहीं दिया
एनीवर्सरी पर पहाड़ ले गया
मगर मुँह से मुबारकबाद नहीं बोला गया
रोज़ सवेरे तुम्हें स्कूल छोड़ने की ड्यूटी
मोटर साइकिल के साथ पूरी शिद्दत से निभाता रहा
पर कहा नहीं गया मुझे तुम्हारी फ़िक्र है
शायद तुम समझ सको कि असल में
अड़ियल और नाशुक्रे आदमी का प्यार ऐसा ही होता है
मैं प्रेम को ज़बान पर लाने का क़ायल नहीं रहा
इसीलिए मेरा प्रेम तुम्हारी अनुपस्थिति में
हमेशा आँखों से पिघलता रहा
और तुम्हारे सामने कभी कभी होंठों से
जैसे उस दिन तुम्हारे माथे पर अंकित हुआ
जब पहली बेटी होने के वक़्त स्ट्रेचर पर लेटे हुए
ऑपरेशन थिएटर के लिए तुम्हें विदा कर रहा था
और नमाज़ बाद दुआ के लिए उठे हाथों में
टप-टप गिरते आँसुओं की शक्ल में फूट पड़ा
कहते हैं प्रेम कलाओं से व्यक्त होता है
आज इस प्रेम-दिवस पर पूरी ईमानदारी से कहता हूँ
मुझसे अपने प्रेम की न मूर्ति बनाई जाएगी न तस्वीर
मैं प्रेम को शब्दों का जामा नहीं पहना सकूँगा
मैं काम-याचना को प्रणय-निवेदन
लिखने वाले कवियों से पूछता हूँ
क्या प्रेम की कोई व्यक्त भाषा भी होती है?
- रचनाकार : जावेद आलम ख़ान
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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